Sanjay Kumar

Sanjay Kumar

श्री नरेंद्र मोदी जी ने पी.एम. तक पहुचने का सबसे बड़ा हथियार छः करोड़ गुजरातियों के स्वाभिमान को बनाया था। मैं विनम्रता पूर्वक लालू जी-नितीश जी से पूछना चाहता हूँ कि श्री नरेंद्र मोदी की तरह आप लोगों ने भी 12 करोड़ बिहारियों की बात दिल से की होती, तो सम्पूर्ण बिहार आपके साथ खड़ा होता। सभी दलों ने रणनीति के तहत बिहारियों में बिहारी चेतना का विकास नहीं होने दिया। बल्कि इसे जातीय अस्मिता में बदल दिया।

आप सभी के समक्ष विमर्श हेतु एक विषय रख रहा हूं। विषय है “क्यों और कैसे बिहार विधान सभा के चुनाव का एकमात्र एजेंडा केवल “जाति” बन गया है।” पुनः क्या केवल बिहारी ‘जातीय’ रोग से पीड़ित हैं या राजनितिक दलों ने कैंसर जैसी इस बिमारी को बनाये रखा है ?

राजधानी पटना में आये दिन सभी राजनितिक दल जातीय सम्मेलन कर रहे हैं। अब तो उप-जातियों का भी सम्मेलन होने लगा है। इन सम्मेलनों में भारत सरकार के कैबिनेट मंत्री से लेकर प्रान्त के मुख्यमंत्री तथा भूतपूर्व मुख्यमंत्री तक बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। बेशर्मी की हद यह है कि नेतागण स्वयं और अपने जाति को निम्न से निम्नतर प्रमाणित करने में लगे हुए हैं। इस क्रम में प्रधानमन्त्री पद को भी उनके दल द्वारा नहीं बख्सा गया है।

अनुभव यह कहता है कि राजनितिक दलों ने सत्ता और स्वार्थ की राजनीती हेतु बिहार के बंटे हुए समाज को और खंडित करने का कार्य किया है। पहले “अन्य पिछड़ा वर्ग” था, अब इसे तोड़कर एक “अत्यंत पिछड़ा वर्ग” बना दिया गया। इसी प्रकार दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए “महादलित” नामक एक अन्य पहचान बनायी गयी।

आज बिहार में दलितों तथा महादलितों के बीच संघर्ष के समाचार आते रहते हैं। अब महादलितों के लिए सवर्ण दलित हो गए हैं। करीब-करीब यहीं कहानी मध्यवर्गीय और तथाकथित उच्च वर्गीय जातियों के बीच का है। व्यक्तिगत तौर पर सभी लोग यह स्वीकार करते हैं कि उनका सर्वाधिक शोषण उन्हीं के बंधू-बांधवों ने किया। और, संक्षेप में यही है बिहार में ‘जाति’ का सच।

मैं स्वीकार करता हूं कि बिहार में जातियों के बीच ‘मतभेद’ था। किन्तु इसे ‘मनभेद’ तक ले जाने का श्रेय राजनितिक दल और उनके नेताओं को जाता है। यहीं कारण है कि बिहारियों को अन्य स्थानों के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं। जरा सोचिये ! क्या इस भूमि ने महात्मा गांधी, सिंध के जे.बी.कृपलानी, केरल के रवीन्द्र वर्मा, गुजरात के अशोक मेहता, गोवा के मधु लिमये और कर्नाटक के जॉर्ज फ़र्नान्डिस, मध्य प्रदेश के शरद यादव आदि को राजनितिक पहचान उनके जातीय आधार पर दिया है ?

क्या यह सच नहीं है कि करीब-करीब सभी जाति-वर्ग के लोग बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं ? यहाँ तक कि जातीय अंकगणित में जिस जाति का एक प्रतिशत भी वोट नहीं है, उस जाति का व्यक्ति भी यहां का मुख्यमंत्री बना है। सत्य यह है कि जाति आधारित राजनीती ने हीं देश के एक समय सबसे सुशासित और विकसित राज्य को “बीमारू” प्रदेश के श्रेणी में खड़ा कर दिया।

उल्लेखनीय है कि नेहरू जी द्वारा लोक प्रशासन पर अमेरिकी विद्वान् पॉल अप्पेलबी के नेतृत्व में गठित आयोग के रिपोर्ट के अनुसार सत्तर के दशक के उत्तरार्ध तक बिहार देश का सबसे सुशासित एवं एक संभ्रांत प्रदेश था। यहाँ का प्रति व्यक्ति आय 1970 तक कर्नाटक आदि दक्षिण के राज्यों से अधिक था।

आज नितीश जी और लालू जी को प्रधानमन्त्री द्वारा बिहार को ‘बीमारू राज्य’ कहना बुरा लग रहा है। मित्रों ! बिहार के बीमारी का कारण गरीबी नहीं अपितु ‘जातीयता’ जैसा घिनौना खेल है। जिसे खेलने में सभी नेता दक्ष हैं। क्या यह सच नहीं है कि जब तक नितीश जी ने सुशासन दिया तब तक राज्य की जनता उन्हें अपने सर पर बैठाये रखा। उन्हें अखिल भारतीय पहचान मिला। पुनः आजकल प्रधानमंत्री द्वारा नितीश जी के डी.एन.ए. के बारे में की गयी टिपण्णी काफी चर्चा में है। वे इसे बिहारी अस्मिता से जोड़कर देख रहे हैं। महाशय को बिहारी चेतना की याद अब आई है।

श्री नरेंद्र मोदी जी ने पी.एम. तक पहुचने का सबसे बड़ा हथियार छः करोड़ गुजरातियों के स्वाभिमान को बनाया था। मैं विनम्रता पूर्वक लालू जी-नितीश जी से पूछना चाहता हूँ कि श्री नरेंद्र मोदी की तरह आप लोगों ने भी 12 करोड़ बिहारियों की बात दिल से की होती, तो सम्पूर्ण बिहार आपके साथ खड़ा होता। सभी दलों ने रणनीति के तहत बिहारियों में बिहारी चेतना का विकास नहीं होने दिया। बल्कि इसे जातीय अस्मिता में बदल दिया। स्मरण रहे कि भले वो चेतना सुषुप्त हो गयी है पर मरी नहीं है। दिल्ली विधान सभा का चुनाव इसका उदहारण है।

ज्ञातव्य है कि एक राष्ट्रीय दल के नेता ने टिपण्णी किया था कि दिल्ली में बिहारी रोज़गार करने आये हैं राजनीती करने नहीं। परिणाम आप सबके सामने है। जरा सोचिये!!! कैसे नेताओं ने जातीय राजनीती करके सर्वाधिक नुकशान स्वयं के जाति को पहूंचया। वे जाति के नाम पर केवल भाई-भतिजावाद कर रहे हैं। अपने-अपने दलों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह संचालित कर लोकतंत्र का मज़ाक बना दिए हैं।

क्या इससे राष्ट्र सुरक्षित रहेगा ? पुनः जो दल ‘विकास’ के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं, उनके लिए इसके क्या मायने है ? क्या केवल विकास का न होना हीं यहाँ कि समस्या है ? क्या ईंट, पत्थर, लोहे, बालू आदि से मकान निर्माण कर देने मात्र से “घर” बन जाता है ? घर बनता है भावनात्मक संबंधों से, जिसे सभी राजनितिक दलों ने समाप्त कर दिया है। वैसे भी अगर विकास मूल्यविहीन हो तो उससे “विस्थापन और विनाश” हीं होता है।

आइए, अब थोड़ी चर्चा इस जातीय राजनीति की बिहार के अर्थव्यवस्था पर पड़े प्रभाव पर भी करते हैं। प्राचीन काल से ही बिहार शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म तथा ‘सेवा क्षेत्र’ का केंद्र रहा है। आज़ादी के कुछ हीं वर्षों के पश्चात बिहार की भ्रष्ट राजनीति तंत्र ने इस विरासत का सत्यानाश कर दिया। देखते हीं देखते शिक्षा के संस्थान असमाजिक तत्वों का अड्डा बन गया। कॉलेज तथा छात्रावासों की पहचान जाति विशेष से की जाने लगी। कुछ हद तक सत्तालोभी नेता युवाओं में यह बात फैलाने में सफल रहे कि उनका आदर्श उनका जाति है। इससे शिक्षा में काफी गिरावट आयी। कहना न होगा कि नेताओं ने सत्ता में आते हीं उनके चुनाव और भ्रष्ट आचरण में साथ देने वाले लोगों को उप-कुलपति तक बनाया।

परिणाम यह हुआ कि कोचिंग संस्थान काफी फल-फूल गया या यों कहें कि ऐसे संस्थान विकल्प के रूप में सामने आये। शोध कहता है कि कोचिंग संसथान में पढने वालों में अन्य के अपेक्षा भ्रष्टाचार के प्रति लगाव अधिक होता है। जाति, शिक्षा और माफिया का गठजोड़ इतना मजबूत हो गया कि सबलोग इसके सामने असहाय हो गए। नब्बे के पूर्वार्ध में मुख्यमंत्री की हैसियत से इसपर अंतिम प्रहार दिवंगत श्री भागवत झा ने किया था। आप सब जानते हैं कि इसका परिणाम क्या हुआ। इन सबका प्रभाव राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़ा।

कहना न होगा कि इन सबसे बिहार में एक नए अर्थतंत्र का प्रादुर्भाव हुवा, जो अपहरण, गुंडागर्दी और जाति आधारित सेनाओं पर आधारित है। देखते-हीं-देखते ग्राम से लेकर शहरी अर्थव्यवस्था तक का पतन हो गया। ग्रामीणों ने अपने पारम्परिक पेशा अर्थात् लकड़ी, लोहे आदि से लेकर खेती के कार्य छोड़ दिए। जातीय हिंसा से लोग गाँव से शहर की और पलायन किये तथा शहर के व्यापारी बिहार को हीं छोड़कर चले गए। इन सबसे और असमानता बढ़ी, अंततः हिंसा भी बढ़ी। पुनः केवल जातीय आधार पर कल्याणकारी योजनाओं का भी उल्टा प्रभाव हीं हुआ।

श्री नितीश जी ने वोट बैंक हेतु महादलित का प्रादुर्भाव तो किया पर, गाँव-गाँव में शराब की दुकान खोलकर इन्हीं वर्गों तथा बिहारी युवाओं का सत्यानाश कर दिया। स्त्री शक्ति का शराब से काफी शोषण हुआ। पारिवारिक रिश्ते काफी प्रभावित हो रहे हैं। इसने बिहार की आत्मा को हीं मार दिया। इसकी भरपाई में दशकों लग जायेंगें।

शराब के खिलाफ एक आंदोलन की शुरुआत मैंने मगध की धरती से की थी, जिसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। चलते-चलते “विकास” का ढोल पीटने वाले दलों से भी एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ, क्या केवल विकास से बिहार की समस्या का समाधान हो जायेगा ? क्या ईंट, कंक्रीट, पत्थर और लोहे से मकान बना देने भर से क्या वह “घर” बन जाता है ? “घर” बनता है ‘भावनात्मक संबंधों’ से, जिसे भ्रष्ट राजनिति ने तोड़ दिया है।

जाति आधारित राजनीति के समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का अध्ययन एक व्यापक विषय है। संक्षेप में मैंने अपनी बातें रखी है।अंत में यह कहना चाहता हूँ कि केवल राजनितिक दल और नेता हीं बिहार के पतन का कारण नहीं हैं। एक नागरिक होने के नाते इस पतन में हमारी भी बराबर की भूमिका है। राजनितिक नेता तो केवल आइना भर हैं, उसमें चेहरा तो हमारा हीं दिखाई देता है। इस पाप से मुक्ति के लिए बिहार में एक रचनात्मक आंदोलन की आवश्यकता है; ताकि “बिहारी” बाहर के लोगों के लिए गाली और बुराई का पर्याय न रहे। आवश्यकता केवल आह्वान मात्र की है।

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