आज बिहार की राजनीतिक अस्थिरता केवल चिंता का ही विषय नहीं अपितु चिंतन का भी विषय है। सुशासन बाबू के सत्ता में बने रहने की ललक विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास का एक अनूठा प्रयोग है। यह प्रयोग राजनीतिक विज्ञानिओं के लिये भी शोध और कौतूहल का विषय है। कहना न होगा कि दुनिया की जिस धरती पर लोकतंत्र/प्रजातंत्र का उद्भव हुआ वहीं इसे शर्मसार किया जा रहा है।
बिहार के वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का अवलोकन करें तो एक अजीब तथ्य सामने आता है। उल्लेखनीय है कि सम्प्रति बिहार गणितीय दृष्टिकोण से तो राजनीतिक रूप से स्थिर है पर प्रशासनिक दृष्टि से अस्थिर है। इस विचित्र स्थिति का सामना बिहार जैसा प्रदेश दशकों से कर रहा है। बिहार की यह विपत्ति संघीय सरकार को भी राजनीतिक लाभ देता है, अतः विश्लेषक इस मुद्दे पर शायद हीं टिप्पणी करते हैं। आलोचकों का यह भी कहना है कि अगर देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रम को आगे बढ़ाना है, पाँच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो बिहार को सस्ता श्रम आपूर्ति का केंद्र बनाकर रखना होगा।अतः यहाँ की वर्तमान राजनीतिक/प्रशासनिक व्यवस्था इस उद्देश्य हेतु लाभकारी है।
बिहार के राजनीतिक सन्दर्भ में अगर पिछले ७५ वर्षो के कालखंड का विश्लेषण किया जाय तो उससे जो बाते निकलती हैं वो यह हैं कि सत्तर के दशक के बाद से कांग्रेस के शाशनकाल से ही सुशासन में गिरावट शुरू हो गयी थी। ९० के दशक में स्वार्थवादी, अपहरण और भ्रस्टाचार के पोषक सरकार मिली। २००५ से २०१० के कालखंड में कुछ विकास के काम की शुरुवात हुई लेकिन २०१० के बाद से पिछले १२-१३ वर्षो में सुशासन बाबू के राजनीतिक महत्वकांक्षा और सत्ता में बने रहने की ललक से आज बिहार राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, इसके कारण विकास के सभी काम ठप हैं और अफसरशाही मनमाने ढंग से काम कर रही है। आइये इस लेख के माध्यम से बिहार की राजनीतिक अस्थिरता के कारण और निवारण को समझने की कोशिश करते हैं।
नेता से पार्टी चलती है और नेता ही सुशासन का सूत्रधार होता है। लेकिन अगर नेता ही अत्यधिक महत्वाकांक्षी हो जाय और अपनी साख की परवाह किये बिना किसी प्रकार केवल सत्ता में बने रहने के जुगाड़ में लगा रहे तो राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का होना स्वाभाविक है।आज के बिहार के राजनीतिक सन्दर्भ में यह सही जान पड़ता है और वर्तमान मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार को इसके लिए अवश्य ही जिम्मेदार माना जा सकता है। बिहार में सरकार बदलती रही लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बदला।
अब अगर इस बहस को और आगे बढ़ाया जाय कि नितीश को किसने इतना ताकतवर बनाया जो अपनी महत्वकांशा के लिए बिहार की राजनीतिक स्थिरता को दरकिनार कर दिया तो वह है भाजपा। भाजपा ने देश की राजनीति के लिए अलग मानदंड और बिहार की राजनीति के लिए अलगमान दंड कोअपनाया है। बिहार की राजनीति को भाजपा ने हाशिये पर लाकर छोड़ दिया है। भाजपा को बिहार से केवल ज्यादा से ज्यादा सांसद चाहिए उसे बिहार के सुशासन से उतना मतलब नहीं है।
भाजपा ने जिस प्रकार बिहार में श्री फागु चौहान को वहुत वर्षो तक बिहार का राज्यपाल बना रखा उससे बिहार के उच्च शिक्षा की अनदेखी ही नहीं हुई बल्कि उच्चशिक्षा में गुणात्मक रूप से गिरावट आ गई। श्री फागु चौहान ने कुलाधिपति की हैसियत से उत्तरप्रदेश से चुन चुन कर दागी और भ्रस्ट कुलपतियों का चयन किया। जिन पर पहले से भ्रस्टचार और गबन के आरोप थे। जिससे यहाँ की उच्च शिक्षण की गुणवत्ता पर तत्काल नकरात्मक असर हुआ। जिसे आज भी लोग भूले नहीं हैं। यह भाजपा के दोहरे चाल, चरित्र और चेहरा को उजागर करता है।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि भाजपा ने जान बूझकर बिहार में अपने राजनीतिक नेतृत्व को पनपने नहीं दिया ताकि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बिहार में अपनी मनमानी करता रहे। जिस सुशिल मोदी ने पूरे भाजपा को बिहार में नितीश के सामने समपर्ण कर दिया था और नितीश को प्रधानमंत्री मटेरियल बताया था आज अपने को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाये रखने के लिए नितीश के विरुद्ध बयानबाजी करते दिख रहे है। आज भाजपा के कार्यकर्ता अपने को हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं।
राजनितिक प्रेक्षकों का यह भी मानना है कि जदयू अपने आतंरिक कलह और विरोधाभास के कारण टूटने के कगार पर है। हाल में ही जदयू के पूर्व एम्एलसी रहे श्री रणवीर नंदन का पार्टी से इस्तीफा इसका प्रमाण है कि जदयू से बहार निकलने का सिलसिला शुरू हो गया है। राजद और जदयू का राजनीतिक गठजोड़ बेमेल था। आमलोगों को पहले से ही पता था कि यह चलने वाला गठजोड़ नहीं है। तुष्टिकरण के नाम पर बहुत दिनों तक केवल राजनीतिक गठजोड़ नहीं चल सकता है। जदयू का कार्यकर्त्ता का बेस लगभग समाप्त होने के कगार पर है। जदयू के अंदर शीतयुद्ध चल रहा है। दरअसल जदयू एक परिपक्व राजनीतिक दल कभी न था न हीं इसका आगे भविष्य है। अतः इसका विघटन होना स्वाभाविक है। इस दल में अभी जो हो रहा है वह स्वार्थ की लड़ाई है।
कोई दावे के साथ यह कह सकता है कि लालू को छोड़कर बिहार के किसी भी दल में, विशेषकर जदयू में कोई “राजनीतिज्ञ” है। क़रीब-क़रीब सभी दल परिवारवाद एवं सत्ता और स्वार्थ की राजनीति कर रहे हैं। बिहार की राजनीति में नीतीश की कोई जैविक उत्तराधिकारी नहीं है। इसीलिये पलटी मारने के बावजूद अभी भी बने हुए हैं। पर यहीं नीतीश कुमार हैं जो बिहार के तमाम राजनीतिक बुराइयों का केंद्र बिंदु है। बिहार की राजनीतिक बुराई का नीतीश केवल लक्षणमात्र हैं। क़रीब पिछले पाँच दशकों से बिहारी इलाज के नाम पर इस लक्षण को दबा रहे हैं। पहले हीं बहुत देर हो चुका है। अब अगर बीमारी के जड़ को समझ कर इलाज नहीं किया गया तो बिहार को संपूर्ण सत्यानाश से कोई नहीं बचा सकता।
आम तौर पर और स्वभाविक रूप से राजद और वामपंथी दलों की गिनती प्रगतिशित राजनीतिक दलों के रूप में नहीं होती है।अभी भी ये पुराने जुमला दोहराने में लगे हुए हैं कि आज भी समस्या के लिए सामंतवाद ही जिम्मेदार है। राजद के सांसद श्री मनोज झा ने समस्या के लिए जिस प्रकार से प्रतीकात्मक रूप से सामंतवाद की तरफ इशारा किया, क्या वह आज के सन्दर्भ में सही है ? उतर मिलता है कि नहीं ! क्या मनोज झा को इस बात का उत्तर नहीं देना चाहिए कि १९९० के बाद से बिहार के आम आदमी की समस्या के लिए उनका दल (राजद ) कितना जिम्मेदार है? जिसके शासन में अपहरण और भ्रस्टाचार संगठित रूप से पोषित हो रहा था। क्या राजद ने कभी भ्रस्ताचार और तुष्टिकरण से ऊपर उठ कर राजनीतिक की है ? क्या राजद के नेता लालू यादव को भ्रष्टाचार के लिए कोर्ट ने दोषी नहीं ठहराया है ? क्या ये सभी बाते आम आदमी के विकास में वाधक नहीं है ?
बिहार की राजनीतिक अस्थिरता के लिए बिहार के बुद्धिजीवियों को भी उतना ही जिम्मेदार मानना होगा जो केवल अपने को राजनीतिक बहस तक सिमित रखते है और उसमे आगे आ कर राजनीतिक पहल नहीं करते हैं। उन मे से बहुत तो वोट डालने तक नहीं जाते हैं।
आज बिहार को एक नए राजनीतिक सोच की जरुरत है और वर्तमान के सभी राजनीतिक दल बिहार में अपनी विश्वशनीयता खो चुके हैं। समर्थ बिहार यहाँ पर नए राजनीति की कवायद लोगों के बिच जा कर कर रहा है जिससे बिहार को तुस्टीकरण और भ्रष्टाचार से मुक्ति मिले। – संजय कुमार एवं एस के सिंह (समर्थ बिहार)