बिहार ने जाति जनगणना के पीछे की मंशा

बिहार ने जाति जनगणना के पीछे की मंशा

वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद जब कर्णाटक, आँध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में तकनीकि विकास हेतु सॉफ्टवेयर पार्क खुल रहे थे, तब बिहार में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव चरवाहा विद्यालय खोल रहा था और वामपंथी, प्रगतिशील व् जनवादी चरवाहा विद्यालय का समर्थन कर रहे थे। आज जब बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद, गुरुग्राम इत्यादि विश्व पटल पर उभर कर आ रहे हैं तब बिहार के सुशासन की सरकार लोगों से जाती पूछ रही है।

दशकों बाद बिहारवासी “सनातन धर्म और संस्कृति” के प्रति सजग हो रहे थे, जात-पात से ऊपर उठ रहे थे। परिणामस्वरूप यहाँ के सभी राजनीतिक दलों का वोट बैंक हिलने लगा और ये सभी दल सामूहिक रूप से बिहारियों को इस भाव से विमुख करने में लग गए। कुछ दलों ने इसके काट के रूप में जातीय जनगणना को मुद्दा बना दिया और इसे जैसे हीं संस्थागत करना आरंभ किया कि यहाँ के नेताओं में इसका श्रेय लेने का मानों होड़ लग गया है।

कुछ दल अपने को पिछड़ा बता रहे हैं। तो कुछ इनका हिमायती बता रहे हैं। घमासान इस बात को लेकर भी हो रही है कि कौन अति-पिछड़ा के क़रीब है? कहना न होगा कि यह समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय भी है।

बिहार बीजेपी के सर्वोच्च नेता सुशील मोदी ने दावा किया कि उन्होंने हीं अति-पिछड़ा शब्द ईजाद किया। उल्लेखनीय है कि नीतीश के NDA से अलग होने के बाद की प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुशील मोदी ने सात-आठ मिनट के अपने संबोधन में क़रीब दस बार से अधिक अति-पिछड़ा शब्द का प्रयोग किया। कितना हास्यास्पद है कि ये महाशय लंबे अवधि तक बिहार के उप-मुख्यमंत्री रहे और वित्त विभाग इन्हीं के पास था बावजूद ये बिहार के पिछड़ेपन का श्रेय स्वयं को देना चाहते हैं।

कहना न होगा कि दक्षिण भारत के राज्यों ने जिस प्रकार से भाषा के नाम पर उप-राष्ट्रीयता का अलख जगाया और आज वहाँ का क्या हाल है हम सभी जानते हैं। जो स्थान ख़ाली हुआ उसको राष्ट्र-विरोधी शक्तियों ने भरा।

भाषा के नाम पर आंध्र प्रदेश एक अलग राज्य बना, कुछ हीं वर्षों में दो हिस्सों में विभाजित हो गया और एक और विभाजन की तैयारी शुरू हो गयी है। इसी प्रकार अन्य राज्यों का हाल तो और भी भयावह है। आज केरल को केवल बिहारी हीं बचा सकते हैं। जहाँ तक बात बिहार की है तो जो भूमिका दक्षिण में भाषा ने निभाया आज वही जाति ने यहाँ किया।

आज बिहार इस्लामिक आतंकी संघटन पीएफ़आई PFI की राजधानी बन गया है। अभी हमारा इस मुद्दे पर कुछ भी टिप्पणी करना उचित नहीं रहेगा क्योंकि NIA इसकी जाँच कर रही है।

अब बात करते हैं बिहार में जातीय जनगणना की। यूं तो जनगणना केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन बिहार में सभी राजनीतिक दलों में जातीय रूप से पिछड़े और अति पिछड़े लोगों को अपने साथ करने की होड़ लगी हुई है और इसलिए बिहार में जाति आधारित जनसंख्या को गिनने का काम शुरू किया गया है। जदयू , राजद और वामपंथी दल जो जाति को मिटाने की बात करते हैं, आज वे जाति को पूर्णरूप से जीवित करने में जुटे हुए हैं।

इन तथाकथित प्रगतिशील दलों का मुख्य एजेण्डा पिछड़ेपन को बेच कर अपने को जीवित रखना है। ये दल पिछड़ी जातियों को हमेशा ही पिछड़े के रूप में देखने के लिए लगे हुए हैं। ताकि इनका राजनीतिक सफर चलता रहे। इनके पास विकास का कोई एजेण्डा नहीं होने से पिछड़ेपन को बेचते रहना आसान विकल्प दिखता है।

अगर नीतीश सरकार के सुशासन की पड़ताल की जाय तो एक बात निश्चित रूप से निकल कर सामने आती है कि इस सरकार में कुर्मी जाति के लोगों की गिनती अप्रत्यक्ष रूप से करके उनको जरूरत से ज्यादा अवसर का लाभ दिया गया। 500 करोड़ के इस प्रोजेक्ट में जाति आधारित जनगणना की जानी है। अगर ये पैसा पीएफआई की गणना करके उनको जड़ से समाप्त करने के लिए की जाती तो उसका सार्थक औचित्य होता। दुर्भाग्य यह है कि बिहार के बुद्धिजीवी राजनीतिक दलों के इस कुचक्र को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं। अंग्रेज भारत के सामाजिक विसंगतियों और जातियों का इस्तेमाल फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया। अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब “कास्ट ऑफ़ माइंड” में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।

इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं। जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान, ह्वेन सांग और अलबरूनी जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा कि यहां किसी का शोषण होता था। योगी आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत हैं। पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं। जन्म आधारित जातीय व्यवस्था हिंदुओं को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।

शास्त्र क्या कहता है : चलिए हजारों साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं। सम्राट शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से। उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके, आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की। सत्यवती का बेटा बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे। क्या उनका शोषण होता होगा ? महाभारत लिखने वाले वेद व्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।

विदुर, जिन्हें महापंडित कहा जाता है, वो एक दासी के पुत्र थे। हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है। भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।

श्रीकृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे। उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे। यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्री कृष्ण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ मानव समाज को दिया।

राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे। उनके पुत्र लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो वनवासी थे। तो ये हो गयी वैदिक काल की बात। स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था। सबको शिक्षा का अधिकार था। कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।

वर्ण सिर्फ आदी भारतीय समाज में सामाजिक कार्यों, उत्पादन कार्य और सहकार्यों के आधार पर थे। उसे बदले जा सकते थे। जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं, वही।

प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा, वह जाति से नाई था। नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।

उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई। जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया। 506 वर्ष देश पर मौर्यों का राज रहा। फिर गुप्त वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे। 140 वर्ष देश पर गुप्तों का राज रहा। केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्हीं का रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं। तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।

फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100-1750 तक है। इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम शासन रहा। अंत में मराठों का उदय हुआ। बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया। अहिल्या बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये। मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद थे। यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।

17 वर्षों तक शासन में रहने के बाद नीतीश कुमार को जाति आधारित सर्वे कराने की जरूरत क्यों पड़ी है। इसका कारण यह है कि नीतीश कुमार को भाजपा और राजद के दबाव का सामना करना पड़ रहा है। नीतीश की लोकप्रियता में बहुत कमी हुई है। उनका आधार वोट खिसक रहा है। इसके विपरीत भाजपा का वोट अति पिछड़े वर्गों में 20% से बढ़कर 37% हो गया है। क्षेत्रीय दलों का अति पिछड़े वर्गों में वोट 41% से घटकर 20% हो गया है। जातीय सर्वे के जरिये जातीय उन्माद फैला कर मण्डल 2 की तैयारी की जा रही है। इससे क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय एजेण्डा को रोकने में मदद मिलेगी।

वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद जब कर्णाटक, आँध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में तकनीकि विकास हेतु सॉफ्टवेयर पार्क खुल रहे थे, तब बिहार में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव चरवाहा विद्यालय खोल रहा था और वामपंथी, प्रगतिशील व् जनवादी चरवाहा विद्यालय का समर्थन कर रहे थे। आज जब बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद, गुरुग्राम इत्यादि विश्व पटल पर उभर कर आ रहे हैं तब बिहार के सुशासन की सरकार लोगों से जाती पूछ रही है।

इस सर्वे के बाद बिहार को जाति के उन्माद मे झोंकने का काम शुरू होगा। नीतीश को पता है की उनकी राजनिति अब खत्म हो रही है अतः दूसरे दलो के खेल को बिगाड़ दिया जाय। इस सर्वे के मंथन से जो विष निकलेगा उसका इस्तेमाल समाज को एक बार फिर बांटने के लिए किया जाएगा। समर्थ बिहार लोगों के बीच जाकर इस सर्वे के खेल के पिछे असली मंशा को उजागर करेगा। – संजय कुमार व एस के सिंह, @समर्थ बिहार

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