‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह दिनकर कुमार की कविताएँ
वर्तमान में दिनकर कुमार पूर्वोत्तर के सबसे सक्रीय और अनुभवी कवि कहे जा सकते हैं। वे लंबे असरे से असम राज्य में बसे हुए हैं और वहीं से उनका लिखना-पढ़ना जारी है। दिनकर जी साहित्य और पत्रकारिता में जितने सक्रीय हैं, लेकिन आत्म-प्रचार से उतने ही दूर हैं ..जितना कि दिल्ली और बाकी भारत से ब्रह्मपुत्र का विनाश और शोक!
कवि दिनकर कुमार ने असम में उस महानद का तांडव देखा है और सुरक्षा बलों की सुरक्षा या कहें भय में सहमें हुए लोगों को देखा है! वे पूर्वोत्तर की अपनी डायरी में क्या-क्या लिखते हैं … किसी ने पढ़ा है ? पढ़ा है तो महसूस कितना किया है ? शायद यह सवाल भी उनका कवि अक्सर उनसे पूछता होगा। वे लंबे वक्त तक असम से प्रकाशित दैनिक ‘सेंटिनल’ अख़बार के संपादक रहे हैं।
उन्होंने वहां के ‘धुएं और धुंध’ को देखा है, इसलिए वे लिखते हैं –
“धुएं और धुंध में ही ठीक है ओझल रहे चेहरा आह भी निकले तो उसे लील जाए सन्नाटा.”
दृश्यों के सहारे कविता नहीं बनती, दिल में दर्द का अनुभव लिए बिना कवि कहलाना बेमानी है।
उनकी इन कविताओं में जो दर्द है, वह किसका दर्द नहीं है भला?
क्यों कवि कह रहा है ? “आओ विज्ञापन से ढक दो इस बदरंग पृथ्वी को
ताकि नकली ख़ुशी का मंजर बना रहे”
यह कवि की पीड़ा है, यह पीड़ा हर उस नागरिक की है, जो बेबस है आज की इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था से!
दिनकर कुमार आज के समय की मानवीय त्रासदी को कलमबद्ध करते हैं, आने वाली पीढ़ी के लिए.. यही कवि कर्म भी है।
– नित्यानंद गायेन
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1. धुएं और धुंध में ही ठीक है
धुएं और धुंध में ही ठीक है ओझल रहे चेहरा
नजर न आये जमाने को
आंखों में तैरता हुआ लहू
विषाद की स्याह लकीरें
हल्का सा झुका हुआ माथा
जमाने का क्या है
भावनाओं को ठोकर मारकर
निजी व्यथा को भी बना देता है चुटकुला
तसल्ली देने के नाम पर
हौले-हौले खुरच देता है घाव को
धुएं और धुंध में ही ठीक है ओझल रहे चेहरा
आह भी निकले तो उसे लील जाए सन्नाटा
किसी का ध्यान आकर्षित न कर पाएं बेमतलब आंसू
उपेक्षा के तीरों को सहते हुए
एक दिन तो फौलादी बन जाएगा सीना!!
2. आओ विज्ञापन से ढक दो इस बदरंग पृथ्वी को
आओ विज्ञापन से ढक दो इस बदरंग पृथ्वी को
ताकि नकली ख़ुशी का मंजर बना रहे
नंगों और भूखों का भी दिल बहल जाए
तुम्हारी रहस्यमय मुस्कान की व्याख्या करते हुए
अभिजातों की मंडली की ऊब मिट जाए
आओ विज्ञापन से ढक दो इस बदरंग पृथ्वी को
ताकि मलबों से उठता हुआ धुआं छिप जाए
बिखरे हुए जले हुए शव और उनके इर्द-गिर्द
मंडराते गिद्ध पर्यटकों को नजर न आ सकें
तरक्की की नकली छवि बनाने के लिए
चित्रों में उल्लास का रंग भरा जाए
आओ विज्ञापन से ढक दो इस बदरंग पृथ्वी को
झूठ दमकने लगे शुद्ध सच की तरह
बेचारा सच नाली में तड़पता रहे
आँकड़ों के तिलिस्म में गुम हो जाए आबादी की कराह
चीख निकलने से पहले लबों को सी दिया जाए
आओ विज्ञापन से ढक दो इस बदरंग पृथ्वी को।।
3. मेरी अनुपस्थिति तुम्हें अखरेगी
मेरी अनुपस्थिति तुम्हें अखरेगी
फिर तुम ऐसे सवाल करोगे जो
अनुत्तरित ही रह जायेंगे
महफ़िल के शोर में दब जायेगी तुम्हारी नाराजगी
हवा में हिलती नजर आएगी पालतू दोपाये की पूंछ
संकेतों से ही तुम्हें
चुप रहने की सलाह दी जायेगी
मेरी अनुपस्थिति तुम्हें अखरेगी
तुम मुझे ढूंढते फिरोगे
आकृतियां ओझल होती रहेंगी
तुम भावना में बहना चाहोगे
तुम्हें दुनियादारी की कसम खिलाई जायेगी
तुम ऐतराज जताओगे
तुमसे गुस्सा थूकने के लिए कहा जाएगा
बौने विकल्पों से ही दिल बहलाने का प्रस्ताव दिया जाएगा।।
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