मैं मांसाहार का न समर्थक हूँ न मांसाहारी हूँ लेकिन सनातन धर्म के अनुयायी ज्ञात इतिहास के प्रत्येक खंड में मांसाहारी रहे हैं। शाकाहार का अपना महत्व भी हर युग में रहा है और यह एक सात्विक भोजन माना जाता रहा है।
परतंत्रता के लंबे काल ने हिंदुओं के खान पान के ढंग पर बड़ा प्रभाव डाला है। अब हिंदुओं के चौके की शुद्धता भी नष्ट हो गई है, आधुनिक वास्तु ने चौके की सीमा रेखा ही समाप्त कर दी है। भारत पर चाहे मुस्लिम युग हो या अंग्रेजी राज, हिंदू एक अजीब हीनभावना से ग्रस्त हो कर अपना खान-पान, रहन-सहन, शिखा, सूत्र सब खो बैठे हैं।
मुसलमानों के आगमन से पूर्व हिंदू मांसाहारी शौक से सुअर का मांस खाते थे। महाकवि भारवि के किरातार्जुनीयम् का कथानक तो अर्जुन और किरातराज के बीच सुअर के शिकार पर अधिकार को लेकर ही बुना गया है। भगवान बुद्ध का अंतिम भोजन सुअर का मांस ही था। रामकथा का पात्र राजा प्रताप भानु जंगल में सुअर का शिकार करते हुए ही भटक गया था।
मुसलमानों की ‘अभयमुद्रा’ सारे संसार में केवल सुअर के संरक्षण में उठी हुई है। सुअर उनके लिए अवध्य है लेकिन हिंदू क्यों इतनी हीनभावना से ग्रस्त हैं वे भी गोश्त में बकरा मुर्गा ही खाते हैं, सुअर कब उनके लिए अभक्ष्य हो गया इसका पता नहीं चलता।
यदि मांसाहारी हिंदू पोर्क को अपने भोजन में शामिल कर लें तो उन तमाम लोगों का जीवन स्तर सुधर सकता है जो शूकर पालन पर गुज़ारा करते हैं। पोर्क के प्रति अपनी दुर्भावना छोड़नी पड़ेगी। पोर्क न खाने के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है और दुनिया सैकड़ों टन पोर्क साल भर में खा जाती है। चीन का तो पोर्क ही मुख्य भोजन है। भारत में भी पूर्वोत्तर में पोर्क की अच्छी खपत है। केवल मुस्लिम शासित भारत में ही पोर्क को लेकर हीनभावना है। गोआ का व्यंजन पोर्क विंडालू भोजन भट्टों में अच्छी खासी लोकप्रियता रखता है।
या तो हमारी तरह शाकाहारी हो जाइये या फिर खुल कर पोर्क सॉसेज खाइये। पाकिस्तान का निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना बेख़ौफ़ होकर पोर्क खाता था।
मटन छोड़िये पोर्क खाइये !
(चित्र साभार कपूर गैलरी)