सूर्य उदित हुआ और

बाबासाहब नाम का
सूर्य उदित हुआ और
जमे हुए किवाड़
धडाम से खुल गए

सदियों से मनुष्यता की
बाँट जोहनेवाले
लाचार पड़े अंत:करणों में
झरना बहने लगा

बिजली कौंध जाए
वैसे
परंपराओं की आँखें खुल गई
व्यवस्था के नाम पर
अंध:कार फैलानेवाले समाज के

क्रूर आनंद लेकर जीनेवालों को
धरती कम पड़ गई
भाग जाने के लिए l
आएगी समता जगत में
समझ चुके थे वे भी

प्रज्ञासूर्य ने फिर
रोशनी फैलाई
दसों दिशाएँ चमक उठी
दीप, ओज, तेजस्विता
क्या कहें आखिर
कैसे वर्णन करूँ ?
फूल मुस्काए
गगन गुनगुनाए
प्रसन्न, सुंदर, भव्य विचार-पुंज
प्रज्ञा ने भी
ऊपर उठकर देखा,
एक सूर्य
दूसरे सूर्य का
स्वागत कर रहा था – डॉ. प्रेरणा उबाळे

डॉ. प्रेरणा उबाळे (लेखिका, कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत), शिवाजीनगर पुणे-411005, महाराष्ट्र)

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