-राजकमल गोस्वामी
उत्तर प्रदेश सरकार की जनसंख्या नीति का प्रस्ताव अभी तो प्रस्ताव ही है। मंजूर भी हो गई तो भी नीति ही रहेगी। नीतियाँ पारे की तरह चंचल होती हैं। सरकार बदलते ही बदल जाती हैं।
बरसों पुरानी सरकारी नीति थी बल्कि नियमावली में भी दर्ज थी कि कोई सरकारी कर्मचारी दो शादियाँ नहीं कर सकता और ऐसे व्यक्ति से शादी भी करना वर्जित था जिसकी पहली पत्नी जीवित हो। चाहे पर्सनल लॉ कुछ भी कहता हो सरकारी नौकरी की यही शर्त थी। अखिलेश सरकार आई और मुस्लिम तुष्टीकरण में यह शर्त मुसलमानों के लिये हटा दी गई। प्रशासनिक विधि कभी भी प्रशासनिक आधार पर बदली जा सकती है।
जनसंख्या जैसे गंभीर मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर काम होना चाहिये। राज्य सरकार के पास नौकरियाँ ही कितनी हैं और बजट भी कितना है कि जनहितकारी अपनी योजनायें चला सके। राज्य सरकार न दे अपनी योजनाओं में लाभ, भारी धन तो भारत सरकार लुटा रही है।
मनरेगा केंद्रीय कानून है, किसान सम्मान निधि भारत सरकार दे रही है, मुफ्त राशन भारत सरकार दे रही है। सबके लिये आवास, मुद्रा लोन, स्टार्ट अप जैसी पैसा लुटाऊ और करदाता को कंगाल करने वाली योजनायें केंद्र सरकार की हैं। राज्य सरकार को कौन पूछता है ?
कुल मिला कर यह नीति कम और राजनीति अधिक दिखती है। मुख्य चिंता यह होनी चाहिये कि जनसंख्या संतुलन बिगड़ने पर भी देश का सांविधानिक ढाँचा सुरक्षित रहे। जब तक देश में हिंदुओं की निर्णायक आबादी है तभी तक धर्मनिरपेक्षता है तभी तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।
हिंदू मंदिर और धर्मस्थल तो अभी भी सरकार के नियंत्रण में हैं। कम से कम हिंदू धर्मस्थल तो हिंदुओं को सौंप दिये जायें। हिंदू मंदिरों की अथाह सम्पत्ति का उपयोग तो हिंदू लोग अपनी धार्मिक शिक्षण संस्थाओं के उपयोग में ला सकें।
जनसंख्या तो लोकतंत्र में भगवान भरोसे ही चलेगी। उस पर नियंत्रण के लिये आपात् काल जैसा माहौल और संजय गाँधी जैसी संकल्प शक्ति चाहिये। (चित्र व आलेख साभार)