ठाकुर का कुआँ और लालू के बैल

ठाकुर का कुआँ और लालू के बैल

भारतीय लोकतंत्र में क्षेत्रीय दलों की भूमिका राज्य स्तर पर महत्त्वपूर्ण है पर सत्ता में बने रहने के लिये ये दल अब अति-क्षेत्रियता का केवल सहारा नहीं लेकर जातीय उन्माद को फैलाकर सत्ता में बने रहने के जुगत में लग गए हैं। इसके कारण समाज में ढाँचागत हिंसा आरंभ हो जाता है। बिहार इस प्रकार के हिंसा का शिकार हो चुका है। अतः बिहार में बन रही राजनीतिक गठजोड़ की दिशा का अवलोकन करना होगा।

आज जब बिहार का समाज समरसता की तरफ अग्रसर हो रहा है और जब लोगों ने आरक्षण को स्वीकार कर लिया है वैसे समय में राजद के सांसद श्री मनोज झा द्वारा विमेंस रिजर्वेशन बिल पर “ठाकुर का कुआँ” कविता पाठ के जरिये सामंतवादी विचारधारा की तरफ इंगित करना राजद की एक सोची समझी चाल है।

बिहार तथा अन्य प्रदेशों में अति- क्षेत्रवादी दलों ने वोट बैंक राजनीति हेतु जाति को संस्थागत बना दिया। लालू को इसका पुरोधा कहा जा सकता है। कहना न होगा कि आज देश की राष्ट्रीय दलों से लेकर सभी क्षेत्रीय दलें टिकट के बँटवारे से लेकर मंत्रीमंडल बनाने में जातीय समीकरणों का ख़ास ध्यान रखती हैं। इसका सबसे बड़ा लोकतांत्रिक नुक़सान यह हुआ है कि राजनीति में प्रतिभाशाली लोगों का अब कोई स्थान नहीं रह गया है।

आश्चर्य तो तब होता है की किसी जमाने में ठाकुर को समान्तवाद का प्रतीक कहा गया लेकिन आज के समय में मनोज झा जैसे प्रोफेसर लालू के बैल की तरह बिना दिमाग लगाए समरसता की जमीन को खरोचने में लगे हुए है। ठाकुर का कुआँ विवाद इसी सोची- समझी राजनीति का हिस्सा है। उल्लेखनीय है कि पारिवारिक आधारित दलों में जाति और श्री झा जैसे लोग केवल सहयोगी की भूमिका हीं निभाते हैं। ऐसे लोगों की प्रतिबद्धता किसी सिद्धांत या दल के प्रति नहीं होगी बल्कि सत्ता में साझेदारी या जूठन चाटने तक सीमित रहता है। पर जब समाज और सत्ता में बैठे हुए लोग के बीच इस प्रकार का दरार पैदा किया जाता है तो एक ऐसा तत्त्व इससे ख़ाली किए गये स्थान को भरता है जिसे “राष्ट्र विरोधी” शक्ति कहते हैं। और आज पूरे देश में यहीं हो रहा है। और ढाँचागत हिंसा इसी प्रवृति का विस्तार है।

ठाकुर का कुआँ सामंतवाद के प्रतीक के रूप में किसी समय में प्रासंगिक रहा होगा लेकिन आज A to Z की बात करनेवाला राजद जातिगत विद्वेष फैलाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है। इसमें मनोज झा जैसे प्रोफेसर और बुद्धिहीन लालू के बैल की भूमिका में चल रहें है। राष्ट्रीय जनता दल ने समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए कोटा शुरू करने के लिए संवैधानिक संशोधन का विरोध इन्ही मनोज झा के द्वारा करवाया था और उसे जातीय ध्रुवीकरण के लिए २०१९ में चुनावी मुद्दा बनाया था। जातिगत श्रेणी के अलावा दो प्रकार के लोग, यथा नौकरशाह और हाईकमांड का चमचागिरी करने वाले व्यक्ति सत्ता और विभिन्न राजनीतिक दलों में हैं। प्रोफेसर झा दूसरी श्रेणी में आते हैं। एक कहावत है कि ‘नया मियाँ ज़्यादा प्याज़ खाता है उक्ति श्री झा पर पूरी तरह से चरितार्थ होती है। लालू यादव और उनके पुत्र तेजस्वी यादव को खुश करने के लिये वे सभी हदें पार कर जाते हैं।

जिस ज़माने में ठाकुर का कुआँ सभी के लिए सुलभ नहीं रहा होगा उस ज़माने में जरुरत पड़ने पर ठाकुर ने देश की हिफाज़त के लिए अपना सर्वश्व न्योछावर किया। लेकिन आज समाज को एक ऐसे नए सामंतवाद से जूझना पड़ रहा है जो राजनीति में परिवारवाद का पोषक है और नए सामंती विचारधारा को आगे बढ़ा रही है साथ ही भ्रस्टाचार का उद्गम भी है। राजद जैसे क्षेत्रीय दल आम आदमी के संसाधन को खूब लुटे हैं जब वे सत्ता में आते है और सामंतवाद के नए प्रतीक के रूप में उभर कर सामने आये हैं । राजद के शासन में १९९० के दशक में अपहरण और भ्रस्टाचार सरकार द्वारा पोषित थे। क्या मनोज झा को यह सामंतवाद नहीं दिखाई पड़ता है ? क्या लालू के बाद राबड़ी और राबड़ी के बाद तेजस्वी ही राजद के उत्तराधिकारी होंगे यह सामंतवाद नहीं है तो क्या है ?

खेद की बात है कि सोची- समझी रणनीति से एक हीं दल के दो लोग जो प्रोफेसर की योग्यता रखते हैं वे धर्म और जाति के नाम पर बिहार में विषवमन कर रहे हैं। क्या भारतवर्ष जैसे देश में रामचरितमानस पर भड़काऊ बयान उचित है? रामचरितमानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास द्वारा आज के करीब ५०० वर्ष पहले की गयी थी लेकिन प्रोफेसर चंद्रशेखर यादव को उसमे त्रुटि तब जान पड़ती है जब राजद दुबारा जदयू को राजनितिक रूप से असहज करना होता है। क्या प्रोफेसर चंद्रशेखर ऐसा हीं बयान किसी पंथ/मज़हबी किताबों के बारे में दे सकते हैं? पुनः मनोज झा द्वारा जातिगत बयान संसद के उच्च सदन में दिया गया।

हमें यह समझना होगा कि संसद का नया भवन बनाने मात्र से कुछ नहीं होगा बल्कि नया सोच अधिक आवश्यक है। आज तक पंचायत से लेकर संसद तक किसी भी दल या नेता ने बदलते देश/दुनिया के हिसाब से दलों के नेताओं चाल चरित्र बदले पर आज तक कोई चर्चा नहीं किया और लोकतंत्र के मंदिर सदा शर्मसार हो रहा है।

आज बिहार के सन्दर्भ में जरुरत है लोगों को ऐसे बैलों से सावधान करना। भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। पार्टियों का अपना विशेष महत्व है और वे संविधान के सिद्धांतों को लोगों तक ले जाने का एक साधन हैं। लेकिन क्या खुद लोकतांत्रिक चरित्र खो चुकी पार्टियां भारतीय लोकतंत्र की रक्षा कर सकती हैं?

परिवार के लिए, परिवार द्वारा राजनीतिक दल लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। परिवार-नियंत्रित पार्टियाँ हमारे लोकतांत्रिक चरित्र के लिए ख़तरा हैं। किसी पार्टी के एक से अधिक लोग योग्यता के आधार पर राजनीति में आ सकते है, लेकिन एक परिवार द्वारा पीढ़ियों से चलाई जा रही, एक ही परिवार द्वारा नियंत्रित पार्टी लोकतंत्र के लिए क्या सामंतवाद नहीं है तो क्या है? हमें इसके लिए राष्ट्रीय जागरूकता की आवश्यकता है। दुर्भाग्य की बात है के प्रोफेसर मनोज झा और प्रोफेसर चंद्रशेखर यादव जैसे बुद्धिजीवी इसको समझते हुए भी आम आदमी की चेतना के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं।

आज के सन्दर्भ में सोशल मीडिया पर चल रहा निम्नलिखित कविता सटीक जान पड़तना है –
“भूख चारा की
चारा गेहूं का
गेंहू खेत का
खेत किसान का

बैल लालू का
हल किसान का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
मगर चारा लालू का

चाकरी दो बालक की… माध्यम भाषण का
बोली मनोज का… भाषा लालू का
मनोज के ऊपर हथेली चारा चोर का

नाम चोरों का
काम चोरी का
खाना चारा का
पीना चारा का
गाड़ी चारा का
बिल्डिंग चारा का
जमीन नौकरी के बदले का
खाना-पीना, उठना-बैठना
सबकुछ चोरी का

फिर अपना क्या? “
गाँव?
शहर?
देश?

ज़रूरत है अपने अंदर के चोर को ख़त्म करने का जिस दिन ये हो गया ना उस दिन फिर और किसी चीज की जरूरत नहीं रह जाएगी। समर्थ बिहार लोगो के बिच जाकर सामाजिक सद्भाव बनाये रखने की पहल करेगा। – संजय कुमार व् एस के सिंह
समर्थ बिहार

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