पत्थरोत्सव : मुनीन्द्र कुमार मिश्रा

पत्थरोत्सव : मुनीन्द्र कुमार मिश्रा

पत्थरोत्सव

मुनीन्द्र कुमार मिश्रा

पत्थरोत्सव एक महत्वपूर्ण त्योहार है। आम बोलचाल की भाषा में इसे पत्थरबाजी भी कहते हैं। विश्व में अमन-चैन, सुख-शांति, सौहार्द, भाईचारा और गंगा-जमुनी तहजीब की रक्षा के लिए इसका आयोजन होता है।

पत्थर शान्ति का प्रतीक है। अगर तबीयत से एक पत्थर उछाला जाये, तो आसमान में भी सुराख हो सकता है। और जब तक आसमान में सुराख नहीं होता, शांति आयेगी कैसे? पत्थर को ‘संग’ भी कहा जाता है। संग से ही संगीत की उत्पत्ति बतायी गयी है। पत्थर सभ्यता का गीत गाते हैं। एक फिल्म भी आयी थी -‘गीत गाया पत्थरों ने’।

पत्थरोत्सव के संबंध में कहा जाता है कि इसकी शुरुआत कश्मीर से हुई। कश्मीर की शांतिप्रिय जनता ने एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता के लिए इसका अनुष्ठान किया।मनोवांछित फल की प्राप्ति होने से इस पर्व के महत्व और लोकप्रियता में वृद्धि हुई। कश्मीर में इसे राजकीय संरक्षण और सहयोग प्रदान किया गया।

अब यह पर्व पूरे देश में कहीं भी और कभी भी मनाया जा सकता है। बस राजनैतिक मौसम अनुकूल होना चाहिए। उस दिन जुम्मा हो तो और उत्तम। इसमें हिंसा, अंधविश्वास, दिखावा या फिजूलखर्ची जैसी बुराइयाँ बिल्कुल भी नहीं हैं। धार्मिक कट्टरपन तो इसे छू भी नहीं पाया है। वतनपरस्ती, मेलजोल और गंगा-जमुनी तहजीब का इससे अच्छा कोई उत्सव नहीं।

राँची जैसे कुछ शहरों में बीते जुम्मा को यह उत्सव मनाया गया। इनमें से कुछ पत्थरों ने हनुमान जी और काली माता की चरण वंदना भी की। लोगों को यह अच्छा नहीं लगा। विरोधियों का मानना है कि पत्थरबाजी एक प्रकार की हिंसा है। वैसे इनकी बातों में कोई दम नहीं है। दरअसल जब पत्थरोत्सव अपने यौवन पर होता है, तो कुछ सिरफिरे सिपाही और राहगीर पत्थरों के सामने अपना सिर कर देते हैं। कई बार तो बेचारे पत्थर घायल भी हो जाते हैं। मीडिया कभी इन बेजुबान पत्थरों की दुर्दशा को दुनिया के सामने नहीं रखती। मीडिया के इस कृत्य की निंदा होनी चाहिए।

मुझे खुद पत्थरों पर दया आती है। देश के लिए अपनी कुरबानी देने वाले इन पत्थरों के आगे सिर झुकाने का मन करता है। पता नहीं क्यों, कुछ लोग पत्थरबाजों से चिढ़ रहे हैं। अजी, जिनका खून यहाँ की मिट्टी में शामिल है, क्या उन्हें पत्थर भी उछालने का हक नहीं ? आखिर किसी पत्थरबाज की पगड़ी उछालने से क्या मिलने वाला! यह तो पश्चिमी देशों का षडयंत्र है कि पत्थरबाजी को उन्होंने ओलिंपिक में जगह नहीं दी, अन्यथा पंचर की दुकानों में मेडल ही मेडल होते।

संतोष की बात यह है कि अधिकतर शहरों में यह पर्व अब लोकप्रिय होने लगा है। टीवी चैनल इसका लाईव टेलीकास्ट कर रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब हर गली, हर सड़क, हर शहर, हर गाँव में पत्थरोत्सव मनाया जायेगा। पत्थर के सनम विरोध तो करेंगे ही, लेकिन देश को इतना असहिष्णु नहीं होना चाहिए कि कोई अमनपसंद शहरी बेखौफ होकर अपना पसंदीदा पत्थरोत्सव भी न मना सके…(साभार)

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