‘कवि और कविता’ श्रृंखला में डॉ. प्रेरणा उबाळे की कविता “क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए” …

क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए

– डॉ. प्रेरणा उबाळे

गरज-गरजकर बरसने लगे
रास्ते भी गए सारे
बादल होने लगे रिते
देखकर उसे,
बारिश का मन हुआ गीला
कोमल हो बादल ने कहा –
क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए ?

तूफान चल रहा
समय ढल रहा
अँधेरा होता घना
रुकना आसरे के लिए
चल रही है तेज- तेज
पहुँचने घर जल्दी से ….
क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए?

सिर पर ना गिरे टिपटिपवा
झमाझम बरसे जिम्मेदारियाँ
भीगने ना देना तुम्हारे पैरों को
वैसे भी आराम नहीं उनको….
क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए ?

असमय क्यों निकली हो बारिश में
अब पेड़ टूटेंगे, रास्ते बंद होंगे
मदद के लिए होगा कौन ??
क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए ?

हवा कर रही सन् सन्
बिजलियाँ करती खन-खन
पर डरना मत तुम
आँचल की तुम्हारे
जरूरत घोसले को
सँभालकर जाओगी ना…
छाता लेकर बस पकड़ते
सामान सँभालते
पहुँच जाना ठीक से ….
क्या थोड़ा ठहर जाऊँ तुम्हारे लिए ?

काम से घर पहुँचते ही
फिर लौटना है काम पर तुम्हें
हाथों को मशीन जोड़े
चलते अविरत काम
दिखाई ना देने वाले
थोड़ा ठहर जाता हूँ तुम्हारे लिए !

तुम्हारी खुशी
कामों में, घर के कोणों में
हर इन्सान में
और अपनों के सपनों में,
जो सबका वह तुम्हारा
अपना कुछ नहीं,
फिर भी अभिमान नहीं
इसलिए
थोड़ा ठहर गया हूँ तुम्हारे लिए
थोड़ा ठहर गया हूँ तुम्हारे लिए। (26 अक्टूबर 2023)

डॉ. प्रेरणा उबाळे (लेखिका, कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत), शिवाजीनगर, पुणे-411005, महाराष्ट्र) @Dr.PreranaUbale

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