मीता-दास

मीता-दास

‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह मीता दास की तीन कविताएं:- 

मीता दास कविता लिखने के साथ-साथ हिंदी-बांग्ला में अनुवाद भी करती हैं। दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार होने के कारण वे दोनों तरफ की कविताओं को दोनों भाषाओं के पाठकों तक पहुंचा कर बहुत महत्वपूर्ण काम लगातार कर रही हैं। नवारुण भट्टाचार्य की कविताओं का बहुत शानदार अनुवाद किया है हिंदी पाठकों के लिए। अनुवादक बहुत गंभीर पाठक होते हैं। यहां उनकी तीन कविताएं हैं, पहली कविता को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि वे बहुत गंभीरता से इतिहास प्रस्तुत करती हैं, दुनिया के उन क्रांतिकारी कवियों को आज के पूंजीवादी समय में कौन याद करता है भला जब सत्ता ऐसे लोगों पर पैनी नज़र रखती हो? इसके लिए साहस की ज़रूरत है। मीता जी में वह साहस है। मीता दास फिलिस्तीन के बच्चों के दर्द को महसूस करती हैं, आज फिलिस्तीन की चिंता कितने लोगों को है? वहां बच्चे बंदूक और इजराइली सेना के आतंक में जीने को मजबूर हैं!

यहां प्रस्तुत पहली कविता की यह पंक्ति देखिये -‘

“राम जन्मे अयोध्या में और बाबर ने

कब ध्वंश किया मंदिर?”

हिंदी में ‘चूल्हे’ विषय पर बहुत कविताएँ लिखी होंगी। चूल्हे पर नागार्जुन की एक प्रतिनिधि कविता है-अकाल और उसके बाद। इसी विषय पर मीता जी की भी कविता है, जो आज के समय को बयान करती है। गैस इतना महंगा हो गया कि गरीब आज उसके बारे में सोच भी नहीं सकता, जबकि वर्तमान सत्ता ने इसे महिलाओं के सम्मान से जोड़कर राजनैतिक लाभ उठाया है, ऐसे में मीता दास इस कविता के माध्यम से कटाक्ष करती हैं। – नित्यानंद गायेन

कवितायें बतियाती हैं, चुपचाप !

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कवितायें बतियाती भी हैं, 

गुनती भी हैं इतिहास, 

चुपचाप ! 

कब किस इतिहास के पन्ने पर था बिम्बिसार 

कहाँ थीं मोहन जुदाड़ो की खंडित मूर्तियाँ 

या 

किस क्षण सिन्धु शब्द परिवर्तित हुआ 

हिन्दू शब्द में 

राम जन्मे अयोध्या में और बाबर ने 

कब ध्वंश किया मंदिर? 

मुझे क्यूँ महसूस होता है कि 

वहां एक झील थी 

शायद वहां खिलते थे कमल, फ़ैल जाती थी जलकुम्भियाँ 

क्या वहां किसी ने जलाये थे दीये ? 

क्या किसी ने सुनी थी अजान शांत मन से ??

कवितायेँ बतिया रही हैं 

गुन रही हैं इतिहास … चुपचाप 

स्टालिन, बुद्ध, मुसोलिनी न सद्दाम 

लिखो 

यदि लिखनी ही पड़े 

हिटलर की मूछों के बारे में नहीं 

लिखो उसकी प्रेमिका के टूटे ह्रदय की झंकार लिखो 

लिखो हिटलर के जहर मिले भोजन को खाने वाली उस महिला के साहस की व्याख्या,

चिन्हित करो 

बुद्ध के वियोग में यशोधरा का विलाप 

उद्धरण हैं बिखरे 

मार्क्स, माओ, लातिन या मार्किन युग

हंगेरियन या कह लें हंगर युग… अकाल 

अकालेर सॉनधाने के सत्यजीत रे … 

कभी सद्गति में प्रेमचंद को पुकारते रहे 

रविबाबू के चार अध्याय की एला

खुले पन्नो से झांकती है

जिसे देश की स्वाधीनता के साथ ही 

नारी मन की भी स्वतंत्रता चाहिए 

और नष्ट नीड़ की माधवी दूरबीन के छोटे से लैंस से 

देखती बाहरी अंजान विस्तृत जगत को 

विस्फारित नजरों से 

दर्शक मन्त्र मुग्ध से गहरे उतरते-चढ़ते 

साहेब बीबी और गुलाम का वह भग्न स्तूपों तले दफ़न 

जर्जरित, धूल धूसरित हाथ का कंगन और कंकाल 

यह सब चित्र नहीं शब्द है 

इन्हें शब्दों में चित्रित किया है

ये इतिहास हैं या कविता-कहानियों की शब्द-कलियाँ 

लोर्का, गार्शिया मार्खेज़, नाजिम हिकमत 

कविताओं के

पन्नो में

करते हैं आवाजाही … चुपचाप !

और वह

इथोपिया का नग्न क्षुधार्थ शिशु की तस्वीर 

पुलित्ज़ार पुरष्कार प्राप्त केविन कार्टर

दुखित हो अनगिनत रातें 

जिसने

जाग कर काटी

और आत्महत्या कर ली 

लिखना है तो लिखो यह पाशविकता 

या उससे ज्यादा लिखो उसके मन में

उपजी मानवता को | 

बार-बार हम लिखते हैं इतिहास और क्यों लिखते हैं वर्तमान ?

लिखो उस क्षुदार्थ नग्न शिशु की बात 

लिखो उस भूखे गिद्ध की बात 

लिखो उस नग्न बच्चे की घटित होती मृत्यु 

लिखो उस गिद्ध की भूख को 

लिखो उसकी तृप्ति को

लिखो केल्विन की कलात्मकता को 

भूख को परिभाषित करते दृश्य को

लिखो

वह पाशविक था या मानवीय

इसे इतना लिखो कि

स्याही ही शेष न रहे || 

चूल्हा

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कोयला या लकड़ी के बिना 

बेकार है चूल्हा 

और गैस ?

गैस के हम लायक नहीं। 

पर क्या देगची के बिना 

संपन्न है चूल्हा ?

देगची में सिर्फ पानी का खदबदाना काफी है !

कोयला मिल भी जाये 

रेलवे ट्रैक के करीब 

अधजली, गली  लकड़ी चुन भी लाएं 

मुक्ति धाम से या विसर्जित प्रतिमाओं से खींच 

और देगची भर पानी ले भी आएं —

बसाते, जल कुम्भियों से पटे 

तालाब, पोखर से 

पर 

चूल्हे के जलते ही 

खदबदाता है पानी देग में 

जल उठता है घर का पेट 

खदबदाते हैं चूहे 

पानी में अदृश्य हो 

साँसें रुक जाती हैं 

चूल्हे को जलता देख ||

          

फिलिस्तीनी कविता पढ़ते हुए 

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(नवजान दरवीश कहते हैं — फ़ादो, औरों की तरह नींद मुझे भी आ ही जाएगी इस गोली बारी के दरमियान …) 

हाँ हाँ हाँ 

रक्त की गंध में भी मुझे नींद आ ही जाएगी 

चीखते बिलखते बच्चों के खुनी फौवारों से नहा कर भी, 

मुझे नींद आ ही जाएगी 

बस दुःख होगा इस बात पर 

कि मेरा देश इस बात पर चुप्पी साधे बैठा है 

हवाई दौरों के सफ़र में मशरूफ़         

दूरबीन से हवाई पट्टी को ताकता हुआ

विमान की खुली खिड़की से 

उन्हीं बच्चों की लाशों के ऊपर से हवाई उड़ान भरकर 

हर वो सरहद पार कर लेगा 

अपनी हदें पहचानने और भुनाने के लिए 

अधमरे, खून से लथपथ बच्चों की लाशों पर से गुजर जायेगा 

फिर न उफ़ न आह बस एक गंभीर हँसी लपेटे 

बढ़ जायेगा अपने दौरे के अगले पड़ाव की ओर        

ये चुप्पी तुम्हें महँगी न पड़े 

बच्चे माफ़ नहीं करेंगे कभी तुम्हें 

नींद तुम्हें भी आ ही जाएगी 

राजसी ठाठ-बाट में पर 

रक्त के सूखते धब्बों की गंध 

नहीं दब पायेगी किसी रूम फ्रेशनर से या न ही 

टेलीविजन पर विज्ञापित किसी डियोड्रेंड से ही ||                    

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