‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह सपना भट्ट की दो कविताएं
सपना पहाड़ की कवयित्री हैं, प्रेम और पीड़ा इनकी कविता की ख़ास पहचान है. इनकी रचनाओं में ये दोनों तत्व पहाड़ के गोद से गिरते झरनों की तरह है. मेरे लिए खुसरो से बेहतर प्रेम का कवि कोई नहीं है … लेकिन सपना भट्ट की कविताएं हमें ट्रांस में लिए जाती हैं, प्रेम की बहुत बारीक़ अनुभूतियाँ हैं इनकी रचनाओं में. यह बात आप इनकी कविताओं से गुजर कर ही महसूस कर सकेंगे. आज जब हमारे आसपास का वातावरण नफ़रत, हिंसा और ईर्षा से प्रदूषित होने को आतुर है, ऐसे में कवयित्री प्रेम लिख रही है. – नित्यानंद गायेन
सुन लिए जाने का सुख
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जीवन की
असम्भव यंत्रणाएं
अपने वाच्यार्थों में मुखर ही रहीं अभिधा की तरह
जो कभी नहीं कहा
उस निर्दोष मौन की
हज़ार अर्थों में होती रहीं व्याख्याएँ
जो कहती रही बार बार
वह सुन भर लिया गया उपकार की तरह
कभी समझा नहीं गया
कहे को सुन लिया जाना भी
बड़ी विलासिता है
कोई वहन कर सके तो
सुन लिए जाने का सुख
मेरी हस्त रेखाओं की पहुंच से ऐन बाहर
इतराता रहा
अनसुना दुःख अपने
नाम पर लजाता हुआ
नैपथ्य में खड़ा सकुचाता रहा
मेरा ढीठ संकोच
सदा मेरे ही आड़े आता रहा
मैं कैसे कहती
कि अब यह दैन्यता मन तक आ पहुंची है
किससे कहती
कि स्मृतियों की आरी
अब आत्मा के कोमल तंतुओं को काटने लगी है
मैं घबराए हुए दोषी बच्चे की तरह
बस इतना भर ही जान सकी
कि मेरे जैसी
प्रेम में पड़ी लाटियों को
एक चपत अधिक ही लगाता है ईश्वर
जानती हूं
विस्मृत हो ही जाता है
हर भोगी हुई यंत्रणा का संताप अंततः
इस दुःख का ज्वार भी
सप्ताह भर में उतर ही जाएगा
तुम तो जानते ही हो
क्षमा मुझ जैसे मूढमतियों के लिए
कितना बड़ा उपहार है
किन्तु यह तुम
कभी जान नहीं सकोगे प्यार!
कि तुम्हारा
मुझे क्षमा करने के बाद
ईश्वर के बगल में जाकर बैठ जाना
मुझे कितना रुलाता है…
अतिरेक
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तरसती हुई
दुर्धर्ष कामनाओं में
तुम्हारा स्थगित सामीप्य मांगूंगी
प्रेम करूँगी निर्विकार
तुमसे अपने विह्वल प्रेम का
अभीष्ट स्वीकार नहीं मांगूंगी
स्नेहसिक्त उदास लालसाओं के लिए
मृत इयत्ता के बंधन मांगूंगी
तुम्हारी अनिच्छाओं में
प्रेमिल अनुग्रह नहीं माँगूंगी
तुम्हारी कलाओं से
रस, छंद, लय और ताल की संपदा नहीं
तुम्हारे ही अंतरिक्ष में
अनहद बजते दिव्य नाद की थिरकन माँगूंगी
तुम्हारी नाक पर का ग़ुस्सैल तिल माँगूंगी
अनुस्वार को बरतने के लिए
चन्द्रबिंदू के लिए तुम्हारी
निश्छल स्मिति का तिर्यक नहीं माँगूंगी
तुम्हारे निरुपाय
नैराश्य की क्षुब्धता माँगूंगी।
अपने निविड़ तम के लिये,
तुम्हारे प्रबल ओज की आभा नहीं माँगूंगी
तुम्हारे आंगन में झरे
हरसिंगार से भर लूँगी अपनी ऊदी ओढ़नी
वेणी में गूँथने के लिए
कोई सद्य खिला रक्तिम पुष्प नहीं माँगूंगी
मन दुखाती हुई किसी प्रेम कथा के
टीसते मिथकों में तुम्हे माँगूंगी
तुम्हारे घर गांव गली शहर में
तुमसे क्षण भर की भेंट का उपहार नहीं मांगूंगी
ओ प्यार !
तुम अतिरेकी समझते हो न प्रेम मेरा
ज़रा देर यह मेरा
कच्चा मन संभालना !
अबके मैं तुमसे
अपनी असंपृक्त पीड़ाओं का अतिरेक माँगूंगी…
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गजब का प्रयोग है–‘प्रेम में पडी लाटियो को’। लाटी शब्द को कविता ही पहचान सकती है।व्याख्या तो संभव ही नहीं है।
नमस्कार,त्रिनेत्र जोशी जी। आप हमें अपनी रचनाएं प्रकाशन हेतु भेजकर मदद करें।