पल्लवी-मुखर्जी-

पल्लवी मुखर्जी की तीन कविताएँ

‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह कवयित्री पल्लवी मुखर्जी की तीन कविताएँ

पल्लवी मुखर्जी कविता के क्षेत्र में अभी युवा हैं। लेकिन वह एक ऐसे परिवार से हैं, जहां लगभग सभी लोग साहित्य और कला से संबंध रखते हैं। कविता लेखन शायद उन्हें विरासत में मिली है। लेकिन विरासत को सम्भल पाना बहुत आसान काम नहीं है, खासकर कला और साहित्य की विरासत को। हालांकि, पल्लवी लगातार खुद को साबित करने के अथक प्रयास में लगी हुई हैं। 

कथ्य है उनके पास, भाषा पर काम करें तो बेहतर है, उनकी लेखनी के लिए। यहां प्रस्तुत उनकी इन तीन कविताओं में एक स्त्री मन की व्यथा और अभिलाषाओं को व्यक्त करती हैं। साथ ही एक मध्यम वर्गीय स्त्री किस नज़र से देख रही है, आज इस समय को, उसका भी आभास मिलता है यहाँ।

यहां ‘माँ’ शीर्षक की उनकी कविता बहुत मार्मिक है। उनकी माँ मरहूम शुक्ला चौधुरी हिंदी की जानीमानी कवयित्री थीं। कोरोना महामारी में जीवन संघर्ष में वे हार गयीं। माँ या किसी अपने को दम तोड़ते देखना बहुत पीड़ादायक है। पल्लवी ने अपनी इस कविता में उसका मार्मिक चित्रण किया है। …. जो कि किसी भी सन्तान के लिए बहुत कठिन काम है। लेकिन जीवन है तो चलता रहेगा, जब तक सक्रीय रहना ही पड़ेगा। वे लगातार लिख रही हैं। 

कवयित्री पल्लवी मुखर्जी इसी तरह से लिखती-पढ़ती रहें। …यही उम्मीद है, … उन्हें बहुत शुभकामनाएं। 

– नित्यानंद गायेन (e-mail :- nityanand.gayen@gmail.com / blogs:- http://merisamvedana.blogspot.in/ )

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1. ठहरा हुआ पानी

इन दिनों
जेठ की गर्म
तपती दोपहरी में
तुम्हारे तांबयी चेहरे पर
अटक जाती हूँ मैं

पाँच घरों का
काम निबटाकर
रात के बासी बर्तनों को
धोती हो तुम

तुम्हारी देह पर
बिखरे पसीने की बूंदें
चुभती हैं 

आँखों में
किरचों की तरह!

तुम्हारे चेहरे पर
उभरी आड़ी तिरछी रेखाओं को
समेटने में विफल खड़ी 

मैं,
महज एक प्याली चाय पकड़ाती हूँ
जिसे तुम सुड़कती हो
रात की बची
बासी रोटियों के साथ

तुम्हारे माथे की
ढीली होती शिराओं को देखकर
तृप्त होती हूँ
कुछ पलों के लिये

पति के जाने के बाद 
तमाम दुःखों को
पीठ पर लादे

अपने दायित्व से 
टूटती नहीं हो 
जबकि तुम्हारे होंठों पर
एक तिरछी हँसी
हमेशा ठहरी होती है

सोचती हूँ
तुम्हारी आँखों का पानी
ठहरा हुआ है
बहता क्यों नहीं है
नदी की तरह

मैं,

तुम्हारे अंतस में
जमी हुई काई
खुरचना चाहती हूँ…!!

2. माँ

मैंने
जब भी देखा
तुम्हारी आँखों को
उनमे
काजल लगे हुये होते

बड़ी और
खींची हुई आँखें

आँखें
झाँकने से
और गहरी लगती

तुम्हें
भोर बहुत पसंद है
जबकि मुझे नींद

सूरज उगने के
पहले की लालिमा
तुम्हारे दोंनों
गालों की लाली
और बढ़ा देती है
जो मैं
कभी देख ही नहीं पाई

हाँ
उन गालों को
चूमा है
क ई बार

तुम
आज भी
किसी युवती की तरह
तेज चलती हो
मैंने
झुककर चलते
कभी देखा नहीं तुम्हें

अक्सर
दोपहर के बाद
निवृत्त होकर
सीढ़ियाँ चढ़ती हुई
जब कभी तुम्हारे पास होती
तुम्हारे हाथों में
पाब्लो नेरुदा की किताब होती
साथ में गर्म चाय
जिसे सुड़क कर पी रही होती तुम

तुमने
हमेशा पृथ्वी को हरा देखना चाहा
तभी तो तुमने
घर के छोटे से आँगन में
रोपा था
अशोक,नीम,आँवला
जो अब
काफी लंबे और पुष्ट हो गये है

अक्सर तुम्हें उनसे
बतियाते देखा है
किसी छोटे बच्चे की तरह

तुम्हारे भीतर एक
सुंदर स्त्री रहती है जो
किसी भी धर्म से परे है
वह न हिंदू है और
न ही मुसलमान
तुमने मुझे
हमेंशा ईद में
सेंवईयां खिलाई है

तुमने कभी नहीं चाहा
कि संपूर्ण सृष्टि के
किसी प्राणी को
जीवन वायु
आक्सीजन न मिले
और बिना आक्सीजन के
उसकी मृत देह
दूर किसी नदी में
फेंक दी जाये

तुमने
कभी नहीं चाहा
कि किसी नदी से
लाशों की सड़ांध निकले

और आज तुम
आक्सीजन नहीं खींच पा रही हो
अपने फेफड़ों मे

सुनो
सुंदर स्त्री
ये कोरोना काल है
नामुराद
और तुम्हें जीतनी है यह लड़ाई
तुम्हारा प्रियतम
तुम्हारे साथ खड़ा है

तुम्हें भरना है आक्सीजन
प्रकृति से
जिसे तुम प्यार करती हो बेशक

हटाओ
लगे हुये पाईप को
खींचों
प्राणवायु अपने हृदय में

देखो
हवा चल रही है
मैं
खींच रही हूँ

आक्सीजन….!!

3. मत करना प्रेम

सुनो
तुम मुझे प्रेम
मत करना ऐसे
जैसे एक
साहूकार करता है
अपने बही -खातों से
चश्मा लगाये
उसकी दृष्टि
गड़ी होती है
बही-खातों पर

मुझे
उस राजा की तरह भी
प्रेम मत करना
जो
सोती पत्नी को
पीठ दिखाकर
निकल जाये
किसी सुदूर वन में

मुझे
मत करना प्रेम
उस किसान की तरह भी
जो
गेहूँ की खड़ी फसल के बीच
उग आये
खरपतवार को
उखाड़ फेकता है

सुनो,
मुझे प्रेम करना 
कुहासे में झाँकते
धूप और नमक की तरह
क्योंकि
मुनिया को पता है
नमक की कीमत!

अल्लसुबह
उसकी रोटी नमकीन होती है
और
उसके आँसू भी….!!

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कवि परिचय :

पल्लवी मुखर्जी
जन्म- 26 नवंबर
रामानुज गंज, सरगुजा,
शिक्षा- स्नातक, संगीत विशारद,
संप्रति- बिजुका ब्लाग, लिट्रेचर पाईंट, गूंज, हिंदीनामा, साहित्यधारा अकादमी, समकालीन परिदृश्य, पोषम पा, उत्कृष्ट पत्रिका, बहुमत, दोआबा, वागर्थ, दुनिया इन दिनों, छत्तीसगढ़ आस-पास, पाखी, अनूगूंज, कविकुंभ में कविताएं प्रकाशित।
प्रकाशित, दस साझा संकलन, कुछ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद।

2 thoughts on “स्त्री मन की व्यथा और अभिलाषाओं को व्यक्त करती पल्लवी मुखर्जी की तीन कविताएँ

    1. आप इन कविताओं पर अपनी समीक्षा अथवा विवेचना भेजने की कृपा करें।

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