पर्यावरण के तहत ‘झारखंड को जाने‘ श्रृंखला की शुरुआत कर रहे हैं, जिसमें झारखंड के भूविज्ञानी और पर्यावरणीय इतिहास को जानेंगे। इस श्रृंखला का आरंभ प्रसिद्ध व्यक्तित्व डा. नीतीश प्रियदर्शी जी के आलेख से कर रहे हैं।

(डा. नीतीश प्रियदर्शी झारखंड की राजधानी रांची शहर के रहनेवाले और एक जानेमाने भूवैज्ञानिक, पर्यावरणविद् तथा फोटोग्राफर हैं। ये रांची विश्वविद्यालय में जियोलॉजी के अध्यापक रहे। http://nitishpriyadarshi.blogspot.com/ nitish.priyadarshi@gmail.com)

कुछ दिन पहले मुझे रांची के सोनाहातू के पास चोकाहातू जाने का मौका मिला। वैसे तो मैं geologist हूँ मगर चट्टानों की तलाश में कभी कभी ऐसे जगहों को देखने का मौका मिलता है। ये जगह मुंडाओं का प्राचीन ससनदिरी (megaliths ) है। चोकाहातू को स्थानीय भाषा में “शोक की भूमि” कहते हैं। चोकाहातू का यह स्थल लगभग 2500 साल पुराना मुंडाओं का हड़गड़ी (ससनदिरी) स्थल है। ऐसा कहा जाता है कि मुंडा हज़ारों साल से यहाँ अपने पूर्वजों को गाड़ते आ रहे हैं।

कर्नल इ.टी. डाल्टन ने 1873 में इस मेगालिथिक साइट पर एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में एक लेख लिखा था। अपने लिखे इस लेख में चोकाहातू मेगालिथिक साइट का क्षेत्रफल उन्होंने करीब सात एकड़ में फैला बताया था। इसमें 7300 पत्थर गड़े हुए बताया था।

झारखंड में इतने विस्तृत क्षेत्र में मेगालिथिक साइट कहीं नहीं है। ये भी माना गया है कि भारत के सबसे बड़े ससनदिरी में से ये भी एक है। वैसे रांची के पिस्का मोड़ में भी बहुत बड़ा मेगालिथ क्षेत्र है । चोकाहातू में जो पत्थर रखे गए हैं, वो अधिकांश ग्रेनाइट नीस /schist और ग्रेनाइट के हैं। यहाँ पर सभी मृतक स्मारक पत्थर (Dolmen) हैं। ये चौकोर और टेबलनुमा हैं।

विश्व में ज्यादातर Dolmen ४००० -३००० ईसा पूर्व (Neolithic ) के हैं। कुछ पथरों पर तो शानदार folding हैं। ऐसा लगता है जहाँ से ये पत्थर लाये गए वहां प्राचीन भूगर्भीय (geological ) हलचल के अवशेष हैं। वहां के लोगों के अनुसार जितना विशाल पत्थर उतने ही धनवान या शक्तिशाली लोग थे।

यहाँ आज भी मुंडा लोग मृतकों को दफनाते हैं या फिर मृतकों के ‘हड़गड़ी’ की रस्म संपन्न करते हैं। शोध के अनुसार यह मुंडा जाति के सांडिल गोत्र का हड़गड़ी स्थल है। यह ‘ससनदिरि’ कम से कम तीन हजार सालों से मुंडा आदिवासी समाज की जीवित परंपरा का अंग है। चोकाहातू के मेगालिथ साइट को वर्ल्ड हेरिटेज साइट घोषित करने की मांग भले ही रिसर्चर उठा रहे हों, पर स्थानीय लोग इसके महत्व से अनजान हैं। यहां लगे पत्थरों का इस्तेमाल स्थानीय लोग गोबर के उपले सुखाने के लिए करते हैं। इस संबंध में पूछे जाने पर स्थानीय लोगों ने बताया कि यह बहुत पुराना हड़गड़ी स्थल है, हम इतना ही जानते हैं।

पत्थलगड़ी या हड़गड़ी उन पत्थर स्मारकों को कहा जाता है जिसकी शुरुआत इंसानी समाज ने हजारों साल पहले की थी। यह एक पाषाणकालीन परंपरा है जो आदिवासियों में आज भी प्रचलित है। माना जाता है कि मृतकों की याद संजोने, खगोल विज्ञान को समझने, कबीलों के अधिकार क्षेत्रों के सीमांकन को दर्शाने, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रागैतिहासिक मानव समाज ने पत्थर स्मारकों की रचना की।

पत्थलगड़ी की इस आदिवासी परंपरा को पुरातात्त्विक वैज्ञानिक शब्दावली में ‘महापाषाण’, ‘शिलावर्त’ और मेगालिथ कहा जाता है। दुनिया भर के विभिन्न आदिवासी समाजों में पत्थलगड़ी की यह परंपरा मौजूदा समय में भी बरकरार है। झारखंड के मुंडा आदिवासी समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिनमें कई अवसरों पर पत्थलगड़ी करने की प्रागैतिहासिक और पाषाणकालीन परंपरा आज भी प्रचलित है।

पुरातात्त्विक विद्वानों और इतिहासकारों के अनुसार पत्थलगड़ी यानी पत्थर स्मारकों की परंपरा प्रागैतिहासिक समय में आरंभ हुई। इसके निर्माता कौन थे और इस परंपरा के वास्तविक शुरुआत के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है परंतु सभी इस बात से सहमत हैं कि यह पाषाणकालीन परंपरा है। इसका आरंभ निश्चित रूप से लौह युग के पहले हुआ होगा। दुनिया में जहां-जहां भी प्राचीन पत्थलगड़ी हैं उसे विश्व धरोहर घोषित कर संरक्षित किया गया है। लेकिन भारत के मेगालिथों को अभी तक न तो विश्व धरोहर माना गया है और न ही उनके संरक्षण के लिए कोई राजकीय पहल हुई है। आदिवासी समाज, पुरातत्ववेत्ता और मेगालिथ संरक्षण में जुटे संस्थाओं व व्यक्तियों द्वारा लगातार मांग की जाती रही है कि पुरा पाषाणकालीन पत्थर स्मारकों को विश्व धरोहर घोषित किया जाए। डा नितिश प्रियदर्शी

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