हाल के कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम ने यह स्पष्ट संकेत दिया और प्रमाणित कर दिया कि किसी भी राज्य में वहां के लोग विकास, भ्रष्टाचारमुक्त शासन और एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की अपेक्षा रखते हैं। यद्यपि कर्नाटक की पिछली कांग्रेस सरकारों की गिनती देश के अच्छे सरकारों के रूप में नहीं रही है। फिर कर्नाटक के लोग भाजपा के शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसके खराब गवर्नेंस से भी ऊब चुके थे।

भाजपा ने जिस प्रकार पिछले कुछ वर्षों से कर्नाटक में कमजोर नेतृत्व को आगे रखा, उसी के कारण मूल रूप से उसे कर्नाटक में हार का सामना करना पड़ा। वहां के लोगों को एक विकल्प की जरुरत महसूस होने लगी थी। कांग्रेस के आलावा और कोई राजनितिक दल अपने को विकलप के रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाया, इसलिए नहीं चाहते हुए भी लोगों ने कांग्रेस को चुना।

भाजपा की सरकार ने देश के स्तर पर कुछ अच्छे काम किये। जिसमें धारा 370 की समाप्ति, ट्रिपल तलाक जैसे प्रथा का खात्मा, CAA पर राष्ट्रहित में स्टैंड इत्यादि शामिल हैं। लेकिन राज्यों में भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने कुछ राज्यों को छोड़कर आमतौर पर कमजोर नेतृत्व को बनाये रखा। परिणाम यह हुआ कि कर्नाटक जैसे राज्य में जहाँ पर बैंगलोर जैसे शहर होने के कारण विकास की गति बनी रहती है, ठीक चुनाव से पहले जातिगत आधारित आरक्षण के फार्मूला को चेंज करके वोटरों को साधने की कोशिश की।

पिछले वर्षों में कर्नाटक में कमजोर नेतृत्व के कारण बिहार की ही तरह अफसरशाही हावी रही और आम जनता ऑफिस का चक्कर लगाती रही और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंची कि भाजपा भी और दलों की तरह शासन के वजाय तुष्टिकरण में व्यस्त है।

बिहार की राजनीति और कर्नाटक की राजनीति में कुछ समानता है – कर्नाटक में राजनीतिक दल, लिंगायत, वोक्कालिगा, कुर्वा इत्यादि समुदायों को साधने में अपना समय और ऊर्जा लगाते हैं। उसी प्रकार बिहार में भी राजनीतिक दल पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित को अपने साथ लेकर चलने का होड़ लगाए हुए है। बिहार में जाती आधारित जनगणना का श्रेय लेने की होड़ में सभी दल एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं।

भाजपा ने बिहार में सुशिल मोदी, तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी जैसे लोगों को राज्य और सरकार में नेतृत्व देकर यह प्रमाणित कर दिया था कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व जानबूझकर बिहार में अपने नेतृत्व को कमजोर रखना चाहता है। ताकि बिहार में शीर्ष नेतृत्व अपनी मनमानी करता रहे। बिहार में नितीश के आगे भाजपा ने सरेंडर करके यह भी प्रमाणित कर दिया था कि भाजपा को बिहार से केवल ज्यादा से ज्यादा लोकसभा की सीट चाहिए। उसे बिहार के विकास में राजनीतिक रूप से उतनी रूचि नहीं है।

नितीश ने जब से पाला बदलकर राजद और अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनायी है तबसे भाजपा कुशवाहा जाती को साधने में लगी हुयी है। और, कभी न कभी कोई कुशवाहा नेता भाजपा की नजदीकी के कारण चर्चा में रहता है। अगर इतना समय और ऊर्जा का उपयोग भाजपा कार्यकर्त्ता सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार और अफसरशाही के विरुद्ध करते तो लोगों को लगता कि सही में भाजपा बिहार की जनता की समस्याओं के समाधान के प्रति जागरूक है।

बिहार में भाजप ने भी अन्य दलों की तरह राजनीति में जातीय तुष्टिकरण को साधने की राजनीति की। जातिगत जनगणना का समर्थन करके जातीय आधारित राजनितिक तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया। नेतृत्व के मेरिट को ध्यान में नहीं रखकर जातीय प्रभाव को ध्यान में रखा। इसी कारण बिहार में भी भाजपा को कर्नाटक की तरह लोग राजनितिक विकल्प के रूप में नहीं देख रहे हैं।

राजद, कांग्रेस, जदयू और वामदल की तो राजनीति ही बिहार में मुख्याधारा से हटकर है। जो झुठे समाजवाद के नाम पर जातीय और मुस्लिम तुष्टिकरण को पोषित करती है। राज्य सहित आमजन के लिए अर्थिक, शैक्षणिक, आदि के विकास का एजेंडा और इस्लामिक आतंकवाद से सुरक्षा उनके लिए उतना बड़ा मुद्दा नहीं है।

श्री बागेश्वर धाम के बाबा श्री धीरेन्द्र शास्त्री की कथा में 10 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए। इससे इस बात का भी आशय लगाया जा सकता है कि बिहार के लोग मौलिक रूप से सरकार से अपनी समस्याओं का समाधान होता नहीं देख रहे हैं और 32 वर्षों से ज्यादा समय का इंतजार खत्म नहीं हो रहा है। ऐसे में बिहार की जनता इनसे ऊबकर अब देव शरण में अपनी समस्याओं का निदान करने के लिए जा रही है।

कुछ राजनीतिक दलों ने घोषित और अघोषित रूप से श्री धीरेन्द्र शास्त्री की कथा का विरोध करके यह भी सन्देश दिया कि उनके लिए सनातन धर्म और रामकथा नहीं बल्कि उनकी जातीय और मुस्लिम तुष्टिकरण की साम्प्रदायिकता आधारित राजनीति ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर इन दलों के नेता जिस प्रकार रमजान में एक साथ टोपी पहनकर शामिल होते हैं उसी प्रकार इस कथा में भी शामिल हुए रहते तो समाजवाद का अच्छा सन्देश जाता। लेकिन इनके लिए समाजवाद एक आइडियोलॉजी है जिसको ये अपनाकर नहीं बल्कि दिखाकर सत्ता में बने रहना चाहते हैं।

बिहार में भी लोग राजनितिक विकल्प की तलाश में है। यह विकल्प निश्चित रूप से नए राजनितिक दलों द्वारा ही सामने आएगा क्योकि सभी दलों के राजनितिक मनसूबे को लोग परख चुके हैं। समर्थ बिहार इस नए राजनीतिक विक्लप को लाने के लिए प्रयास कर रहा है।

  • संजय कुमार एवं एस के सिंह
    समर्थ बिहार

2 thoughts on “कर्नाटक चुनाव परिणाम, बाबा बागेश्वर का बिहार दौरा और बिहार की राजनीतिक परिस्थिति

  1. वाह! बहुत सुन्दर तुलना किया गया है।

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