केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी उच्च शिक्षा रिपोर्ट पर हालिया सर्वेक्षण के अनुसार बिहार ने विभिन्न मापदंडों में सबसे खराब प्रदर्शन किया है। हालाँकि बिहार में हाल ही में कई संस्थान और विश्वविद्यालय खोले गए हैं लेकिन भारत के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार बहुत पीछे है।

बिहार में 18 से 23 वर्ष की आयु के प्रति लाख योग्य छात्रों पर केवल सात कॉलेज हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 30 है। बिहार सरकार अपने सालाना बजट की अच्छी खासी रकम शिक्षा पर खर्च करती है लेकिन उच्च शिक्षा की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। देश के बड़े राज्यों में से छत्तीसगढ़ और बिहार ने वित्त वर्ष 2023 में शिक्षा के लिए अपने बजट का सबसे अधिक हिस्सा आवंटित किया। जहां छत्तीसगढ़ ने शिक्षा के लिए राज्य के अनुमानित शुद्ध बजट व्यय का 18.82 प्रतिशत आवंटित किया, वहीं बिहार ने 18.3 प्रतिशत आवंटित किया।

वित्त वर्ष 2023-24 के लिए शिक्षा विभाग का व्यय ₹40,451 करोड़ होने का अनुमान है, जो राजस्व के लिए ₹ 39,929 करोड़ और पूंजी के लिए ₹522 करोड़ है। वित्त वर्ष 2023-24 में शिक्षा विभाग ने योजना परिव्यय के लिए ₹22,200 करोड़ का अनुमान लगाया, जो कुल शिक्षा व्यय का 55 प्रतिशत है।

शिक्षा के लिए केवल एक अच्छा बजट आवंटित करने से समस्या का समाधान नहीं होगा, बल्कि गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए निरंतर राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। सरकार उच्च शिक्षा की समस्याओं को समझने के लिए परिस्थितियों और मुद्दों पर श्वेतपत्र जारी करने का प्रयास क्यों नहीं कर रही है ?

उच्च शिक्षा देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह 21 वीं सदी के ज्ञान-आधारित समाज के निर्माण का एक शक्तिशाली उपकरण है। भारत में एक विकसित उच्च शिक्षा प्रणाली है, जो लगभग सभी पहलुओं में शिक्षा और प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान करती है। उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षा की सही तस्वीर का आकलन करने के लिए 30 सितंबर, 2010 की संदर्भ तिथि के साथ उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण कीएक पहल की।

सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य था देश में उच्च शिक्षा के सभी संस्थानों की पहचान करें और उन सभी उच्च शिक्षा संस्थानों से विभिन्न पहलुओं पर डेटा एकत्र करें। 2010-11 के लिए पहला सर्वेक्षण जारी होने के बाद से बिहार राष्ट्रीय स्तर पर सबसे निचले स्थान पर है, जब इसमें प्रति लाख योग्य छात्रों पर पांच कॉलेज की कमी थी। वर्तमान परिदृश्य में बिहार के 1092 कॉलेजों में औसतन प्रति कॉलेज 2,088 छात्र नामांकित हैं, जो देश में सबसे अधिक है। यह गंभीर मांग आपूर्ति अंतर को इंगित करता है। 2020-21 के लिए अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएसएचई) के दौरान सामने आए प्रारंभिक आंकड़ों के अनुसार, बिहार राज्य का सकल नामांकन अनुपात 2020 में 14.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 19.3 प्रतिशत हो गया है।

बिहार की आबादी लगभग 15 करोड़ है लेकिन यहां सार्वजनिक, निजी और डीम्ड विश्वविद्यालय मिलाकर केवल 37 विश्वविद्यालय हैं। इसके विपरीत, राजस्थान की आबादी लगभग 8 करोड़ है, लेकिन इसमें 90 विश्वविद्यालय हैं और हरियाणा में 56 विश्वविद्यालय हैं जो केवल तीन करोड़ की आबादी को सेवा प्रदान करते हैं। पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में लगभग 11 करोड़ की आबादी पर 58 विश्वविद्यालय है।

बिहार नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के प्रमुख केन्द्र रहा है। मध्यकाल में परंपरा लुप्त हो गई। ब्रिटिश शासन के उत्तरार्ध के दौरान बिहार में एक पुनरुद्धार देखा गया जब उन्होंने उच्च शिक्षा के अन्य केंद्रों जैसे साइंस कॉलेज, पटना कॉलेज, प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज, बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज और पटना महिला कॉलेज के साथ-साथ पटना में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की।

आजादी के बाद बिहार अच्छे संस्थान पाने की दौड़ में पिछड़ गया। आजादी के बाद पटना ने खुद को अन्य जिला शहरों के साथ उच्च शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में स्थापित किया और उच्च शिक्षा के लिएअच्छा माहौल प्रदान किया। पहले के बी.एन. कॉलेज, लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर, टी.एन.बी. कॉलेज भागलपुर, जैन कॉलेज आरा आदि ने उच्च शिक्षा में महतावपूर्ण भूमिका निभायी। लेकिन 90 के दशक में तत्कालीन बिहार सरकार द्वारा उच्च शिक्षा के महत्व को नजरअंदाज करने से उच्च शिक्षा में गुणात्मक रूप से गिरावट शुरू हुई।

लालू-राबड़ी के समय से शुरू हुए कुशासन के बाद नीतीश सरकार में बिहार की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मामूली सुधार हुआ। लेकिन तथाकथित सुशासन की सरकार में दागी कुलपतियों की बेतुकी नियुक्तियों ने बिहार की उच्च शिक्षा की समस्या को बढ़ा दिया है। कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश से लगभग आधा दर्जन कुलपति उत्तर प्रदेश से नियुक्त किये गये थे जो पहले से ही भ्रष्टाचार, गबन और धोखाधड़ी के आरोपों का सामना कर रहे थे और उनके विरुद्ध पहले से ही ऍफ़ आई आर दर्ज थे। यह बिहार सरकार के भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस के धोखेबाज नारे को दर्शाता है।

इन समस्याओं के साथ-साथ सबसे बड़ा ख़तरा कैंपस का राजनीतिकरण और अपराधीकरण भी है। राज्य की उपेक्षा, खराब बुनियादी ढांचे के विकास और आर्थिक बाधाओं के कारण बिहार की उच्च शिक्षा में उच्च ड्रॉपआउट दर में योगदान होता है। इसके अलावा बिहार के कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में फैकल्टी की अनुपस्थिति के कारण उच्च शिक्षा खतरे में पड़ गई है।

पटना या उसके आसपास राष्ट्रीय ख्याति के संस्थान खुले। इंजीनियरिंग के लिए आईआईटी, एनआईटी, बीआईटी पटना, फैशन टेक्नोलॉजी के लिए निफ्ट पटना। चिकित्सा शिक्षा के लिए इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल कॉलेज, एम्स पटना, चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और चंद्रगुप्त इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट.. आदि। लेकिन राज्य की विशाल आबादी को ध्यान में रखते हुए ये संस्थान बहुत कम है और मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटने के किसी भी वृद्धिशील प्रयास से काम नहीं चलेगा।

बिहार से हर साल लाखों छात्रों के पलायन का मुख्य कारण राज्य में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कमी है। मेडिकल के लिए देश के सर्वश्रेष्ठ उच्च शिक्षण संस्थानों में बिहार का कोई नाम नहीं है। इस कारण से बिहारी छात्र और अन्य शहरों में जाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि पिछले 20-30 वर्षों में शिक्षा पर दिया गया ध्यान नकाफी है।

सीधे शब्दों में कहें तो बिहार में शिक्षा व्यवस्था एक बड़ा चुनावी मुद्दा होना चाहिए, क्योंकि बिहार का भविष्य इसकी कीमत चुका रहा है। समर्थ बिहार राज्य में उच्च शिक्षा के मामलों की स्थिति को उजागर करेगा ताकि जनता सरकार पर शिक्षा और विशेष रूप से उच्च शिक्षा पर अपेक्षित ध्यान देने के लिए राजनीतिक दबाव बना सके। (साभार, उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट, इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी और टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित समाचार) – परिमल कुमार (शिक्षाविद) एवं एस. के. सिंह, समर्थ बिहार

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