‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह कवि फ़रीद ख़ाँ की चार कविताएँ
फ़रीद ख़ाँ हिंदी के उम्दा कवि हैं, उनकी कविताओं के कथ्य मजबूत हैं। हालाँकि उनकी कविताओं पर जितनी चर्चा होनी चाहिए, नहीं हो रही है और यही हिंदी कविता जगत की सबसे बुरी आदत है। ‘नेपोटिज्म’ कविता की दुनिया में खूब सक्रिय है। कविता का प्रकाशन और चर्चा उसी आधार, आपसी लेन-देन और संबंधों पर आ टिका है। कवि और कविता की खोज करने वाले संपादकों की कमी हो गयी है हिंदी में। हालाँकि किसी को भी मेरी इस बात से असहमत होने का पूरा हक है।
फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और कविता से अधिक फिल्म और मनोरंजन की दुनिया के लिए लिखते हैं। कवि फ़रीद ख़ाँ की प्रस्तुत कविताओं में जो कथ्य और दृश्य हैं, उसे हम बहुत जल्दी और आसानी से महसूस कर सकते हैं। मने, होना क्या था, और हुआ क्या ? यह सवाल हर सदी का अहम् है। निम्न पंक्तियों को देखिये, पढ़ने में बहुत आम लग सकती है, लेकिन अर्थ बहुत गहरा है :
“होना तो यह था कि विज्ञान की किताबों में
अहिंसा के समीकरण लिखे जाते।
पर विज्ञान ने मुनाफ़े की छत के नीचे
सबसे अधिक हथियारों के सिद्धांतों का सूत्रपात किया।”
गहन ज्ञान की आवश्यकता नहीं है उक्त पंक्तियों को समझने के लिए, सामान्य मानवीय विवेक ही पर्याप्त है। फ़रीद ख़ाँ की कविताओं में वो तमाम सवाल मौजूद हैं जिनसे हम रोज साक्षात होते हैं। हालांकि, कविता कहना, केवल सवाल करना नहीं है, सवालों का हल भी देना कवि का कर्म होना चाहिए। यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि, सवाल तो सबके पास है, लेकिन जवाब कहाँ है ?
कवि जब लिख रहा हो कि, ‘दुनिया को स्वर्ग होना था….’ तब एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या कवि ने स्वर्ग देखा है ? ऐसी बातों में कवि घिर जाता है। स्वर्ग, जन्नत आसमानी शब्द हैं, ‘आसमानी’ किताबों से आये हैं। बात होगी तो इस धरती की होगी, उसके लोगों की होगी।
आम पाठक कविता, कहानी, नाटक, सिनेमा आदि में अपनी कहानी की तलाश करता है। लेकिन ‘ज्ञानी’ आलोचक तो कविता में पहले शिल्प की तलाश करने लगता है। मैं अक्सर सोचता हूँ, ‘कबीर तो कह गये हैं सदियों पहले, तेरी-मेरी बात, बता क्या तू पूछेगा, तेरी क्या औकात ?’
फ़रीद ख़ाँ की कविताओं में ‘तेरी-मेरी नहीं, हमारी बात शामिल हैं। वे इसी तरह हमारी बातों को लिखते रहें, इसी उम्मीद के साथ उन्हें शुभकामनाएं।
-नित्यानंद गायेन (e-mail :- nityanand.gayen@gmail.com / blogs:- http://merisamvedana.blogspot.in/ )
——————————-
1. दुनिया को स्वर्ग होना था
होना तो यह था कि बुद्ध के बाद
दुनिया और आगे बढ़ती।
पर कलिंग युद्ध हुआ।
होना तो यह था
कि कलिंग युद्ध के बाद
युद्ध नहीं होते, पर युद्ध हुए।
चींटी से लेकर हाथी तक सब मरे
दुनिया के हर कोने में हमले हुए।
दुनिया के हर कोने में बार बार शांति पाठ हुए।
होना तो यह था कि ईसा को सलीब पर टाँगे जाने के बाद
किसी को भी सलीब पर नहीं टांगा जाता।
पर उसके बाद भी सलीब का कारोबार बढ़ा, रुका नहीं।
होना तो यह था कि विज्ञान की किताबों में
अहिंसा के समीकरण लिखे जाते।
पर विज्ञान ने मुनाफ़े की छत के नीचे
सबसे अधिक हथियारों के सिद्धांतों का सूत्रपात किया।
भारी मात्रा में अवतारों और पैग़म्बरों का
उत्पादन करने वाली दुनिया ने
अब तक केवल शांति के व्यापार का
सूत्रपात किया है, शांति का नहीं।
होना तो यह था कि दुनिया
शांति के विचारों से भी आगे, बहुत आगे,
स्वर्ग की तरफ़ बढ़ जाती।
पर यह दुनिया
नरक की रचना में ही इतनी तल्लीन थी
कि उसे वक़्त का पता ही नहीं चला।
……………………………..
2. दुनिया की सरकारें
सरकारें जनता को चुन कर
दे देती हैं एक बड़ी कंपनी को।
बड़ी कंपनी फिर तय करती है
जनता का धर्म, संप्रदाय,
जाति, बोली, खाना, पानी।
जब भी कोई कंपनी घाटे में जाती है।
देश पर ख़तरा मंडराता है।
सरहद पर जंग की तैयारी शुरू हो जाती है।
कुछ सैनिक शहीद होते हैं,
तब जाकर कंपनी के नुकसान की भरपाई होती है।
सरकारें जनता को चुन कर रख देती हैं
दुनिया के बैंकों में गिरवी।
फिर बैंक तय करते हैं
रोज़गार, वेतन, भत्ता, किराया और कीमतें।
जब भी कोई बैंक होने लगता है ख़ाली,
राष्ट्रवाद का परचम सबसे ऊँचा लहराता है उस समय।
फिर भूखे रहना आसान हो जाता है
और बेचैनी हो जाती है सुख की पहली शर्त।
देश के शो-केस में टंगने लगती है आत्म हत्याएँ।
सरकारें जनता को चुन कर झोंक देती हैं आग में।
फिर आग तय करती है राष्ट्रभक्ति की परीक्षा।
जो झुलस कर मर जाते हैं, देशद्रोही होते हैं।
जिनकी आत्माएँ झुलस जाती है, वे कहलाते है राष्ट्रभक्त।
……………………………….
3. अँधेरा
अँधेरा अवसर और ख़तरा दोनों लेकर आया है।
अँधेरा अवसर और ख़तरा ही लेकर आता है।
ख़तरे से बेहतर कोई नहीं जानता कि अँधेरे में क्या छिपा है।
लालच से बेहतर कोई नहीं जानता कि यह अँधेरा कितनी देर का है।
प्रतिघात की ऑंखें ही खुलती हैं अंधकार में।
प्रतिहिंसा शिकार पर ही निकलती है अंधकार में।
घृणा से बेहतर कोई नहीं जानता कि अँधेरे का उद्गम कहाँ है।
अँधेरे में सोना ख़तरे से ख़ाली नहीं।
अँधेरे को रात समझना इस सदी का सबसे बड़ा धोखा होगा।
अँधेरे को नींद के लिए मुनासिब समझना असावधानी होगी।
इस लापरवाही का ख़ामियाज़ा हम साथ में भुगतेंगे।
न कोई कम, न कोई ज़्यादा।
मिल बाँट कर खाएंगे अँधेरे को आधा आधा।
विपत्ति से बेहतर कोई नहीं जानता अँधेरेमें सवेरे का वादा।
………………………..
4. पहचान पत्र/ फ़रीद खां
आईने में जब भी देखता हूँ अपना चेहरा
उसमें मोहनजोदाड़ो के अवशेष दिखते हैं।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
घूम जाता है सब एक बार।
मिट्टी में धंसे पदचिह्न लेकर चले जाते हैं बहुत दूर।
उसमें सुनाई पड़ती हैं वैदिक ऋचाएँ।
सुनाई पड़ती हैं महावीर और बुद्ध के कदमों की आहट।
मेरी संवेदनाओं में हजारों साल की
बहती जलधाराएं हिलोरें लेतीं हैं।
मेरी साँसों में एक साथ घुली हैं
उपनिषदों और संविधान के ताज़ा छपे अक्षरों की गंध।
सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, कबीर, रविदास
और तमाम स्वतंत्रता के सेनानी
एक साथ करते हैं मेरे पहचान पत्र पर दस्तख़त। …
हंसा बगुला एक सा मानसरोवर माहि
बगुला ढूँढे माछरी हंसा मोती खाहि
विज्ञान को दोष न दे
सही कथन है श्रीमान, एक मोती ढूंढता है तो दूसरा मछली!