महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति सामानांतर

महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति सामानांतर

अक्सर कहा जाता है कि अभिमान और सत्ता के मद में दूर की नज़र कमजोर हो जाती है। महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक सन्दर्भ में यह उक्ति भाजपा के ऊपर सही बैठती है। भाजपा ने पहले एकनाथ शिंदे को उद्धव ठाकरे से अलग किया और अब अजीत पवार को महाराष्ट्र के दिग्गज राजनीतिज्ञ कहे जानेवाले शरद पवार से अलग करके एकनाथ शिंदे की सरकार में शामिल करवा लिया। राजनीतिक सुचिता को किनारा करने का भाजपा का यह खेल उसके चाल, चरित्र और चेहरा को उजागर करता है। भाजपा कमोवेश वही कर रही है जो पहले कांग्रेस करती थी।

महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे, अजित पवार की तरह बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और RCP को अपना मोहरा बनाकर भाजपा बिहार के चाचा भतीजा (नितीश और तेजस्वी ) को मात देने के लिए प्रयासरत है। हाल ही में राज्यसभा के उपसभापति श्री हरवंश की नितीश से मुलाकात पर तमाम कयास लगाए जा रहे हैं। जिस प्रकार महाराष्ट्र में भतीजा अजित पवार सत्ता पाने के लिए अपनी राजनितिक प्रतिबद्धता को बदलने के लिए जाने जाते हैं। उसी प्रकार बिहार में चाचा नितीश कई बार सत्ता में बने रहने के लिए पाला बदल चुके हैं। जिस प्रकार महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे और अजित पवार को एकसाथ लेकर चलने में भाजपा असहज महसूस कर रही है उसी प्रकार बिहार में चिराग पासवान, पशुपति कुमार पारस को एकसाथ लाने में भाजपा को दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। महाराष्ट्र में अजित पवार मुख्यमंत्री पद के लिए आस लगाए बैठे हैं। उसी प्रकार बिहार में चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा भाजपा से मुख्यमंत्री पद का आश्वाशन चाहते हैं।

जिस प्रकार महाराष्ट्र कि राजनीति में उद्धव ठाकरे की शिवसेना अपने मूल हिंदुत्व के एजेंडा से भटककर तुष्टिकरण की राजनीति में लिप्त होकर सत्ता से बेदखल हो गई। उसी प्रकार बिहार में JDU ने विकास के एजेंडा से हटकर तुष्टिकरण को अपनाया और सत्ता से बेदखल होने के कगार पर है।

भाजपा के लिए महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति में एक स्पष्ट अंतर यह है कि बिहार में भाजपा का कोई नेता नहीं है। लेकिन महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीश भाजपा के घोषित और सर्वमान्य नेता हैं और वे CM के पद के स्पष्ट दावेदार हैं।

महाराष्ट्र में कल कारखाने और काम का अवसर ज्यादा होने से वहां के बड़े शहरों की राजनीति बिहार के कामगारों से प्रभावित हो रही है। उसी प्रकार महाराष्ट्र का नया राजनीतिक मॉडल बिहार की राजनीति को प्रभावित कर रहा है।

पिछले दिनों नितीश कुमार ने जिस प्रकार JDU के विधायकों और सांसदों से एक एक करके मुलाकात कर रहे हैं, इससे कयास लगाया जा रहा है कि बिहार में JDU को भी अपने दल में टूट का भय लग रहा है। और, राजनितिक प्रेक्षकों का मानना है कि इसके पहले इनके दल को तोड़ने में महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी भाजपा कामयाब हो जाए। JDU अपने दल को RJD के साथ विलय करने के जुगाड़ में लगी है, सांसदों और विधायकों का मन टटोल रही है, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। RJD की छवि को लालू यादव और परिवार का प्रतिनिधित्व है और यह पूरा परिवार जंगलराज का प्रतिनिधित्व करता है और राजद के कार्यकर्ता भी बिहार में जंगलराज का शासन कायम करने रखने का ईमानदार मेहनत करते हैं। अतः JDU के कार्यकर्ता कभी भी RJD के साथ विलय होना पसंद नहीं करेंगें।

पिछले कई दशकों से शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी पकड़ बनाये हुए हैं। उसी प्रकार बिहार की राजनीति में लालू और नितीश पिछले तीन दशकों से बिहार कि राजनीति में हावी हैं। जातिवादी और मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल महाराष्ट्र और बिहार में अपने सबाब पर है। देखना यह है कि इसको मात पहले किस राज्य में मिलता है। जातिवादी और तुष्टिकरण में चुकि बिहार आगे निकल गया है महाराष्ट्र से। इसलिए बिहार में राजनीतिक बदलाव पहले होने की उम्मीद जताई जा रही है।

राजनितिक प्रेक्षकों का मानना है कि महाराष्ट्र की राजनीति में ED, सीबीआई, इनकम टैक्स रूपी शनि के कष्ट से बचने के लिए कमल की पूजा करके वहां के राजनेता अपना कष्ट का निवारण कर रहे हैं। बिहार में कमल की पूजा करवाने के लिए आजकल ED, सीबीआई और इनकम टैक्स के छापे का दौर चल रहा है।

महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति अपने inflexion point पर है। अंतर केवल यह है कि बिहार के आम लोगों ने नए राजनितिक दलों के विकल्प को ढूढ़ना शुरू कर दिया है। लेकिन महाराष्ट्र में अभी लोग पुराने दलों को ही आजमाने की दुविधा में हैं। बिहार में राजनितिक विकल्प देने के लिए समर्थ बिहार ने मुजफ्फरपुर से अपने राजनितिक अभियान कि शुरुवात कर दी है।

संजय कुमार एवं एस के सिंह
(समर्थ बिहार)

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