“23 अप्रैल” स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक  वीर कुँवर सिंह की स्मृति में “विजय दिवस” के रूप में याद किया जाता  है। अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे। इनको 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है। आइए हम अपनी पीढ़ियों को सही संदेश देने के लिए उनके सम्मान में तथ्यों पर दोबारा गौर करें। वीर कुँवर सिंह ने 80 वर्ष की आयु में जो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष का  नेतृत्व किया  वह अविश्वसनीय है। एक अंग्रेज इतिहासकार को लिखना पड़ा कि यदि 1857 में कुँवर युवा होते तो अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।

वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव के एक क्षत्रिय जमीनदार परिवार में हुआ था। इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी।  ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से “यूनियन जैक”  का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में लौटने के बाद 26 अप्रैल 1858 को इन्होंने वीरगति पाई।

औपनिवेशिक कथाकारों ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को 1857 के विद्रोह के रूप में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सिपाहियों और पतनशील सामंती जमींदारों के संघर्ष के रूप में वर्णित किया। उन्होंने जानबूझकर स्वतंत्रता के इस युद्ध में लोगों की गतिशील भागीदारी को नजरअंदाज कर दिया। दुर्भाग्य से औपनिवेशिक कथा ने भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास के निर्माण में एक प्रमुख भूमिका निभाई और बाद में इसे वामपंथी विचारधारा द्वारा समर्थित किया गया, जिसने जमींदारों की वीरता को कम कर  दिखाया, जिन्होंने इसका नेतृत्व किया।

वास्तव में यह स्वीकार करना होगा कि हाल के कई इतिहासकारों ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अध्ययन प्रतिभागियों और भारत के लोगों की पीड़ाओं के नजरिए से किया है। 1857 के प्रतिभागियों के तथ्यों का मूल्यांकन करने के बाद अब यह स्थापित हो गया है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सही मायने में भारत में अंग्रेजों के दमनकारी शासन के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन का प्रतिबिंब था,  और वीर कुँवर सिंह जैसे महान नायक ने आंतरिक आग्रह और विशुद्ध रूप से समय की देशभक्तिपूर्ण मांग से इसका नेतृत्व किया था। 
फिर भी, उनकी तस्वीर को शायद ही पूरा कहा जा सकता है, क्योंकि यह स्थानीय स्रोतों और लोक परंपरा में पाए गए साक्ष्यों को नजरअंदाज करता है। निश्चित रूप से हाल के शोधों ने यह स्थापित किया है कि लोग धार्मिक और जातीय मतभेदों की परवाह किए बिना ब्रिटिशों के  ख़िलाफ़ एकजुट थे। यह एक लोकप्रिय जनसंघर्ष था, इसलिए इसके निशान और छवियाँ विभिन्न लोक संस्कृतियों में अंकित हैं। होली के समय बिहार और पूर्वांचल के भोजपुरी बेल्ट में एक लोकप्रिय गीत गाया जाता है जैसे "बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर, अंगना में उड़े ला गुलाल..
आज वीर कुँवर सिंह को याद करना और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि भारत की सरकारें जातिगत आधार पर तुष्टिकरण में लगी हुई हैं और उन्होंने जानबूझकर वीर कुँवर सिंह सहित और  नायकों की उपेक्षा की है। केवल कुछ स्थानों पर प्रतिमाएं बना देना समय की मांग नहीं है, बल्कि अब इन वीरों को इतिहास में वह हक देना जरूरी है जिसके वे हकदार हैं।
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। वीर कुँवर सिंह सीमित संसाधनों के बावजूद अंग्रेजों को दानापुर से कानपुर तक पीछे धकेल आये और यह इस बात का प्रमाण है कि वीर कुँवर सिंह के नेतृत्व में किये गये संघर्ष को समाज के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त था।
आज हमें सरकार के सामने यह बात रखने की जरूरत है कि वे जाति आधारित राजनीति के तुष्टिकरण से बचें और आजादी के इन नायकों को इतिहास की किताबों में उचित स्थान देने का प्रयास करें। वीर कुँवर सिंह के सम्मान में यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। - संजय कुमार तथा एस.के.सिंह (समर्थ बिहार)
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