- अरुण प्रधान
अभी अभी नुह्न में ब्रजमंडल यात्रा और बजरंग दल तथा विश्व हिंदू परिषद द्वारा मेवात के नलहड़ महादेव अभिषेक यात्रा पर पत्थरबाजी की गई। मामला विशुद्ध सांप्रदायिक है। किंतु सभी दल और विपक्षी INDIA (Indian National Developmental Inclusive Alliance) भी इसे अपने पक्ष की सांप्रदायिकता खेल रही है। इस सबके बीच जरूरी है कि मेवात के थोड़े एक इतिहास पर नजर डाला जाय और मेवात को समझा जाय। अभी मेवात दंगा में कथित सेक्युलर पक्षों द्वारा हसन खां मेवाती के इतिहास को सामने ला कर सांप्रदायिक सौहार्द की चर्चा चलाई जा रही है।
मेवात के इतिहास में एक बहुत ही छोटी भूमिका निभाया था मेवात वंश का राजा हसन खां मेवाती। मेवाती के बलिदान को आजाद हिंदुस्तान में हिंदू मुस्लिम सौहार्द के तौर पर भी प्रस्तुत किया जाता रहा है।
हसन खान मेवाती पूर्व शासक खानजादा अलावल खान का बेटा और मेवात राज्य का एक महत्वाकांक्षी मुस्लिम राजपूत शासक था। उसके वंश ने लगभग 150 वर्षों तक मेवात राज्य पर शासन किया। वह राजा नाहर खान मेवाती के वंशज था, जो 14 वीं शताब्दी 1353ईस्वी में मेवात का वली था यानी सातवां शासक था। उन्होंने 1492 में अलवर किले का निर्माण किया और अलवर को राजधानी बनाया। वह खानवा के युद्ध में मारे गए थे।
अलवर के उत्तर-पश्चिम अरावली पर्वत श्रंखला की एक चोटी पर हसन खां ने एक मजबूत किले का निर्माण कराया था। फिरोज तुगलक के समय में बहुत से राजपूत खानदानों ने इस्लाम धर्म कबूल किया था। उनमें सरहेटा राजस्थान के ‘राजकुमार समरपाल’ थे। समरपाल की पांचवीं पीढी में सन् 1492 में हसनखां के पिता ‘अलावल खां’ मेवात के राजा बने। इसलिये हसन खां ‘जादू गौत्र’ से ताल्लुक रखते हैं और मुस्लिम धर्म अपनाने के बाद खान जादू एवं खानजादा कहलाए।
हसन खां सन् 1505 में मेवात के राजा बनें। सन् 1526 ईसवीं में जब मुगल बादशाह बाबर ने हिंदुस्तान पर हमला किया तो इब्राहीम लोदी, हसन खां मेवाती व दिगर राजाओं ने मिलकर पानीपत के मुकाम पर बाबर से हुऐ मुकाबले में राजा हसन खां के पिता अलावल खां शहीद हो गए। पानीपत की विजय के बाद बाबर ने दिल्ली और आगरा पर तो अपना अधिकार जरूर कर लिया लेकिन भारत सम्राट बनने के लिए उसे महाराणा संग्राम सिंह (मेवाड) और हसन खां (मेवात) बाबर के लिए कड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़े थे।
बाबर ने हसन खां मेवाती को अपने साथ मिलाने के लिए उन्हें इस्लाम धर्म भाई होने का वास्ता दिया तथा एक लडाई में बंधक बनाये गए राजा हसन खा के पुत्र को बिना शर्त छोड़ दिया। लेकिन राजा हसन खां की देश भक्ति के सामने धर्म का वास्ता काम नहीं आया।
16मार्च 1527 को राजा हसन खां ने राणा सांगा के साथ मिलकर ‘खानवा’ के मैदान में बाबर की सेना दोनों जमकर लड़े। अचानक एक तीर राणा सांगा के सिर पर आ लगा और वह हाथी से नीचे गिर पड़े। जिसके बाद सेना के पैर उखड़ने लगे, तो सेनापति का झण्डा खुद राजा हसन खां मेवाती ने संभाल लिया और बाबर की सेना को ललकारते हुए उन पर जोरदार हमला बोल दिया। राजा हसन खां मेवाती के 12 हजार घुड़सवार सिपाही बाबर की सेना पर टूट पड़े। इसी दौरान एक तोप का गोला राजा हसन खां मेवाती के सीने पर आ लगा और इसके बाद आखरी मेवाती राजा का हमेशा के लिए 17 मार्च 1527 को अंत हो गया।
शहीद राजा हसन खां के मृत शरीर को उसके पुत्र ताहिर खां, नजदीकी रिश्तेदार जमाल खां और फतेहजंग खानजादा लेकर आये, उसके बाद राजा हसन खां के पार्थिक शरीर को अलवर शहर के उत्तर में सुपुर्द-ए-खाक किया गया। यहां पर राजा हसन खां के नाम पर एक यादगार छतरी बनाई गई थी। लेकिन देश के सबसे बुरे दौर 1947 में उपद्रवियों ने इस महान स्तंत्रता सेनानी राजा हसन खां की यादगार छतरी को भी नष्ट कर दिया।
अब मेवात में हुई सांप्रदायिक पत्थरबाजी और आगजनी में एक बार फिर हिंदुस्तानी मिट्टी मेवात के हसन खां मेवाती को लोग याद कर रहे हैं।