भाजपा के सुशील मोदी ने जब नितीश को प्रधानमंत्री मटेरियल बताया था तब शायद उनके मन भी अपने को मुख्यमंत्री मटेरियल होने का रास्ता खुलता दिख रहा होगा। लेकिन न तो नितीश ही पीएम मटेरियल बने न ही सुशील मोदी ही सीएम मटेरियल। लेकिन यह जरूर हुआ कि बिहार की राजनीति में भाजपा ने नितीश को अपरिहार्य बना दिया और नितीश से निजात पाने की कोशिश अब भाजपा को भारी पड़ रहा है।

बिहार की राजनीति आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जिसमें सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनितिक दलों को अपने लिए एक सही विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने में कठिनाई हो रही है। चाहे सीमांचल में बांग्लादेशी घुसपैठिये के कारण वहां की विस्फोटक स्थिति हो या बिहार में जातीय जनगणना में श्रेय लेने का मुद्दा हो या PFI का बिहार में फैला हुआ जाल हो या RCP टैक्स का मुद्दा हो। ये सभी मुद्दे परछाई की तरह राजनीतिक दलों का पीछा कर रही हैं।

सबसे अनोखी बात यह निकलकर आती है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जो अपने को हिंदुत्व का चैंपियन कहती रही और चाल, चरित्र चेहरा की बात करती रही, बिहार की वर्तमान राजनितिक स्थिति के लिए आज सबसे ज्यादा जिम्मेवार है। पिछले 15 वर्षो में नितीश को बिहार की राजनीति में अपरिहार्य बनाने का श्रेय भाजपा को जाता है। बिहार में भाजपा के अदूरदर्शी कार्यों के कारण भाजपा को स्वयं के लिए भी आज स्पष्ट राजनितिक राह नहीं दिखाई पड़ रही है। भाजपा के कार्यकर्त्ता भी आज उसी प्रकार हतोत्साहित हैं जिस प्रकार कभी जदयू के कार्यकर्त्ता हुआ करते थे।

भाजपा के सुशील मोदी ने जब नितीश को प्रधानमंत्री मटेरियल बताया था तब शायद उनके मन भी अपने को मुख्यमंत्री मटेरियल होने का रास्ता खुलता दिख रहा होगा। लेकिन न तो नितीश ही पीएम मटेरियल बने न ही सुशील मोदी ही सीएम मटेरियल। लेकिन यह जरूर हुआ कि बिहार की राजनीति में भाजपा ने नितीश को अपरिहार्य बना दिया और नितीश से निजात पाने की कोशिश अब भाजपा को भारी पड़ रहा है।

भाजपा का नितीश के साथ लुकाछिपी का खेल बिहार की राजनीति के लिए अनवरत अराजकता (perpetual chaos) पैदा किया। जिससे निजात पाना किसी भी राजनितिक दल को सूझ नहीं रहा है और सभी राजनितिक दल तुक्का में इधर उधर सांठ-गांठ में लगे हुए हैं। किसी भी राजनितिक दल को दूसरे राजनितिक दल के विरुद्ध कोई राजनितिक एजेंडा का मुद्दा नहीं रहा। क्योंकि सभी ने कुर्सी के लिए गठबंधन बदलना अपना धर्म समझा है।

सबसे अहम बात यह है कि भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी है, जो आज पूरे देश में कमोवेश चढ़ाव पर है। लेकिन बिहार में भाजपा ने हमेशा उतराव की राजनीति की। न तो बिहार में कोई अपना नेता बनाया, न ही एक स्पष्ट राजनितिक एजेंडा को लेकर राजनीति की। नितीश के सामने समर्पण करके बिहार में अपनी ही राह मुश्किल करती गई। यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि जिस प्रकार कांग्रेस ने राहुल गाँधी को आगे कर भारत की राजनीति में भाजपा को अपरिहार्य बना दिया। उसी प्रकार भाजपा ने लम्बे समय तक बिहार में सुशील मोदी को आगे कर बिहार की राजनीति में नितीश को अपरिहार्य बना दिया।

राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और वामपंथी दलों को उनकी पिछड़ी सोच के लिए राजनितिक रूप से ख़ारिज करना स्वाभाविक और आसान है। लेकिन भाजपा जो कि बिहार में नितीश की डबल इंजन की सरकार में शामिल रही उसने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से वही काम किये जो कि एक पिछड़ी सोचवाली राजनितिक दल कर सकता है।

बिहार में जातीय जानगणना का श्रेय लेने की दौड़ में अपने को आगे रखना, राष्ट्रीयता के वजाय अति पिछड़ा वर्ग का मसीहा बनाने की होड़ में चैंपियन साबित करना भाजपा के राजनितिक अदूरदर्शिता को दर्शाता है।

भाजपा ने रेनू देवी और तारकिशोर प्रसाद जैसे लोगों को उपमुख्यमंत्री बना कर एक ओर तो अपने कुशल कार्यकर्ताओं की अनदेखी की, तो दूसरी तरफ यह प्रमाणित किया कि अतिपिछड़े वर्ग में भी भाजपा ऐसे लोगों को ही पसंद करती है। जिससे प्रतिभा और कार्य प्रणाली को नहीं बल्कि क्षेत्रीयता को संतुष्ट किया जा सके। भाजपा ने अति पिछड़ा का चैंपियन बनने में राष्ट्रीय जनता दल और वामपंथी दलों को भी पीछे छोड़ दिया और आजकल कुशवाहा समाज को साधने में लगी है।

भाजपा ने बिहार में अपने राजनितिक एजेंडा को राजद और जदयू का पिछलग्गू बना दिया। राजद और जदयू ने आगे बढ़कर राजनितिक एजेंडा सेट किया और भाजपा उसके पीछे दौड़ती रही और आज उसका परिणाम यह है कि नितीश के किसी भी राजनितिक निर्णय का विरोध करना भाजपा को भारी पड़ रहा है।

रामनवमी के अवसर पर बिहार के कुछ जिलों में जिस प्रकार उपद्रव हुए हैं उसने बिहार के कानून व्यवस्था की पोल खोल दी है। क्या सही मायने में भाजपा इसके लिए नितीश को दोष दे सकती है ? भाजपा ने ही तो नितीश को बिहार में एक लंबे समय तक खड़ा किया।

किसी भी राजनितिक समस्या का समाधान केवल उसी राजनितिक विचार के धरातल पर नहीं होता है। उसके लिए विचार के धरातल को परिवर्तित करना पड़ता है। आज बिहार के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल नए वैचारिक धरातल को ढूढ़ने में सक्षम नहीं हैं। क्योंकि पिछले तीस वर्षों में उन्होंने अपने वैचारिक स्तर को जातिवाद की राजनीति तक संकुचित कर लिया। इससे बाहर निकलना अब इनके लिए असंभव सा कार्य हो गया है।

आज बिहार की राजनीति में अगड़ा, पिछड़ा, कुर्मी, कुशवाहा की राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीयता और समृद्धि जैसे राजनीतिक एजेंडा सेट करने की जरुरत है। ताकि PFI जैसे आतंकी संगठनों को समूल नष्ट करने के साथ साथ राज्य में शिक्षा की गुणवत्ता और उद्योग लगाकर राज्य से पलायन को रोका जा सके। इसके लिए बिहार में नए राजनितिक विकल्प देने के लिए लोगों को आगे आना होगा। समर्थ बिहार इस दिशा में प्रयास कर रहा है। – संजय कुमार व् एस. के. सिंह , समर्थ बिहार

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