– गुरुदेव
गीताजी में सारे वेद, पुराण, शास्त्र आ जाते हैं। 18 वें अध्याय की जो संन्यास आश्रमी व्यवस्था है, वही पातञ्जलयोगदर्शन का ”समाधि पाद है।
पातञ्जलयोगदर्शन का जो दूसरा भाग है ”साधन पाद वह गीताजी का अध्याय छ: है। गीताजी के जो तेरह, चौदह, पंद्रह अध्याय हैं , ये पातञ्जलयोगदर्शन के ”समाधि पाद के अन्तर्गत हैं। अध्याय छ:, सात, आठ पातञ्जलयोगदर्शन के साधनपाद के अन्तर्गत आते हैं। तीसरा है ‘विभूतिपाद जिसमें सिद्धि प्राप्त करने का साधन दिया गया है, गीताजी में इसका भी संकेत है, इसके लिये कोई स्वतंत्र विधान नहीं है। पातञ्जलयोगदर्शन का चौथा पाद ”कैवल्यपाद” है जो गीताजी के राजयोग जैसा है। सद्गुरु (अध्यापक) का कर्तव्य है कि वह इन सब बातों को आध्यात्मिक जिज्ञासुओं (विद्यार्थियों) के सामने रखे।
पेड़ के बड़े पत्ते ही हैं अंजलि जिसकी, उसका नाम है ”पातञ्जलि। ये वन-प्रदेश में रहकर जो कोई कुछ भी लाता था खिलाने के लिये, उसे पतों पर लेकर खाते थे। उन्होंने किसी अन्य पात्र का पूरा जीवन उपयोग नहीं किया। पेड़ की छाल पहनते थे। उनके मूल नाम, गाँव, गोत्र का कुछ भी पता नहीं है। जो भी भारतीय ऋषि-महर्षि हुए हैं, उन्होंने इस पर ध्यान दिया है कि सभी हमें अपना मानें, हमें किसी कुल, जाति, गोत्र से न देखें। बहुत सारे ऋषि-महर्षि ऐसे हैं जिनके नाम, गाँव प्रदेश का कुछ भी पता नहीं है। उनका सम्पूर्ण जीवन जगत-हितार्थ रहा है। महर्षि पतञ्जलि ने विचार किया कि यहाँ पर उत्तम, मध्यम और निकृष्टï, ये तीन प्रकार के साधक पाये जाते हैं।
चौथा जो साधक होता है, उसे साधक नहीं कहा जाता, उसे जगत की आत्मा कहा जाता है। ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्ï (गीता ७-१८) वह गर्भ से ही संन्यास पद से विभूषित होता है, गर्भ से बाहर आने पर कुछ ही वर्षों में संन्यास ले लेता है। महर्षि पतञ्जलि उन्हीं संतों में से एक थे। वे ब्रह्म की आत्मा थे, जगत की आत्मा थे। महर्षि पतञ्जलि ने पहला मंत्र दिया है-मंत्र – अथ योगानुशासनम् ॥ १॥ अर्थ- अब योग की आज्ञा दी जा रही है। ‘सब इस योग को धारण करें- ऐसी उनकी चाहना है, इस मंत्र के द्वारा।
गीताजी के अध्याय छ: में भगवान ने महात्मा अर्जुन के माध्यम से कहा है कि मैं जो ध्यान-योग बता रहा हूँ इसे सभी को करना चाहिये। ठीक यही बात महर्षि पतञ्जलि कह रहे हैं। अब योग की विधि दी जा रही है जिसे आप साधकों को करना चाहिये। इससे कि जब तक आप योग में प्रतिष्ठित नहीं होते तबतक आपको शांति एवं आनन्द की प्राप्ति नहीं होगी। सुख तो धनवान के कुतों को भी है। धनवान का कुता जैकेट पहन कर ठंढ में डेढ़ करोड़ की गाड़ी में बीच की सीट पर रहता है और खिड़की से सबको चिढ़ाता है कि आप करके खाते हैं और देखें, मैं बिना किये खा रहा हूँ।
महर्षि पतञ्जलि कहते हैं कि केवल सुख की आप कामना न करें। मानव शरीर एक मात्र आत्मस्वरूप को प्राप्त करने के लिये मिला है। उन्हीं के जैसा भारत के सभी मनीषियों ने कहा है। कोई विषय के साथ घर में रहता है और कोई भगवान के साथ घर में रहता है। जो भगवान के साथ घर में रहते हैं वे महामानव हैं, वे भगवान के वरद-पुत्र हैं। अत: वैसा ही बनना चाहिए ऐसा महर्षि पतञ्जलि कहते हैं। यह मंत्र बड़ा प्रभावकारी है। जब संत चाहना करता है आत्मजिज्ञासुओं की साधना के लिये तो साधना अत्यन्त सुगम हो जाती है। साधक को विश्वास हो जाता है कि जब संत ही चाह रहे हैं कि तुम साधना करो तो फिर करने में क्या परेशानी है। उनकी चाहना ही आज्ञा है। अत: ‘अथ योगानुशासनम् इस मंत्र से साधक अति प्रसन्न हो जाते हैं।
भगवान श्रीराम ने राक्षसराज रावण के पास अंगद नामक अपने भक्त को दूत बनकर लंका जाने की आज्ञा दी। कुछ महीने पूर्व ऐसी ही आज्ञा भगवान श्रीराम के एक भक्त जामवंत ने भी अंगद को दी थी, लेकिन अंगद ने जामवंत की आज्ञा पर विश्वास नहीं किया किन्तु जब भगवान श्रीराम ने वैसी ही आज्ञा दी तो भक्त अंगद अति प्रसन्न हो गये। कहते हैं आपका काज तो स्वयं सिद्ध है, आज्ञा देकर आपने मुझे बड़ाई दी है ”स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ (श्रीरामचरितमानस) अंगद का कहना है कि शक्ति सद्गुरु की आज्ञा में वास करती है। यही बात जब महर्षि पतञ्जलि कहते हैं तो आत्मजिज्ञासु अत्यन्त संतुष्ट हो जाते हैं कि ब्रह्मस्वरूप ऋषि मुझे आज्ञा दे रहे हैं, मेरी साधना तो एकमात्र बहाना सिद्ध होगी। अब वे कहते हैं कि वह कौन-सी प्रक्रिया है जिससे आप योगस्वरूप हो जाएँगे। वे योगस्वरूपता को आत्मस्वरूपता की संज्ञा दे रहे हैं। इसलिये कि ब्रह्म की क्रिया चाहे देखना, बोलना, सुनना कुछ भी हो वह योगस्वरूप ही है। योगस्वरूपता में ही शक्ति का वास है। जैसे शरीर की छाया शरीर का पीछा करती है, उसी प्रकार जब आप योगस्वरूप होते हैं यानी आपकी सारी क्रिया योग रूप होती है, तो शक्ति आपका अनुगमन करती है। अत: वे कहते हैं- मंत्र – योगश्चिनावृनिानिरोध:॥ २॥ अर्थ- चित्त की वृत्तियों पर संयम हो जाना, चित्त की वृत्तीयों को स्तंभित कर देना ही योग है। जैसे आती हुई भीड़ को कोई संत कहता है ठहरो! तो सारी भीड़ वहीं ठहर जाती है। ठीक वैसे ही चित्त की वृत्तियों को रोक देना योग कहा जाता है। रोका कैसे जाएगा? इसकी बात आगे बतायेंगे। अभी तो इतना ही कहते हैं कि चित्त से वृत्तियों का जो प्रवाह हो रहा है, उसको रोक देना, उससे उदासीन हो जाना है। यह उस साधक के लिए है जो अपने को शरीर नहीं मानता। यह साधना बुद्धि से प्रारम्भ होती है।
दूसरे अध्याय की साधना मन से प्रारम्भ होती है। बुद्धि से प्रारम्भ होने वाली साधना में क्लेश नहीं है। इस अध्याय का नाम है ”समाधिपाद जो शरीर का अभिमान करने वाले के लिये नहीं है। पढ़ाने को तो पढ़ाया ही जाता है, यूनिवर्सिटियों में, कालेजों में और कहीं कहीं आश्रमों में, वह विषय अलग हुआ, लेकिन सिद्धान्त जान लेने से प्रयोग में सुगमता हो जाती है। प्राय: लोग कहते हैं- विचार थमते नहीं, साधना में नींद बाधा बन जाती है, आलस्य, प्रमाद बाधा बन जाते हैं, अतीत [बीते हुए समय] के विचार पुन:-पुन: आ जाते हैं, विषय की स्मृति बहुत ही बाधा डालती है। इसकी बात अभी बतायेंगे, लेकिन ऋषि इस बात को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि चित्त की वृत्तियों को तो लगभग सभी लोग जानते हैं। मन मानता ही नहीं है, बुद्धि बिगड़ी हुई है, तत्काल यथार्थ निर्णय नहीं आ पाता। इसी बात को वे कह रहे हैं कि ये सब चित्त की वृत्तियां हैं। चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाना अर्थात् आपके अधिकार में आ जाना ही योग है।