मनोज मुंतशिर की इन पंक्तियों पर गौर कीजिये….
कहीं दीवारों के चर्चे, कहीं मीनारों के…
कभी तारीफ के जुमले इधर नहीं आते।…
हम तो बुनियाद के पत्थर हैं
कई सदियों से…
और बुनियाद के पत्थर नज़र नहीं आते।...
जी हाँ, कमोबेश यही दशा तो है हम मीडिया वालों की !
लोकतंत्र की बुनियाद में गिने तो जाते हैं हम….लेकिन वर्तमान हालात में हम बस सियासी भोंपू बने बैठे हैं ! नेताजी और अन्य गणमान्यों के बयान और विज्ञप्तियों को छापना, दिखाना मात्र रह गयी है हमारी पत्रकारिता !
विगत् दिनों सूबे झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस ने मीडिया से कहा कि भारतीय चुनाव आयोग से झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उनके विधायक भाई बसंत सोरेन के संबंध में आई “चिट्ठी के लिफाफे में इतनी गोंद लगी है कि वे लिफाफा ही नहीं खोल पा रहे“! एक अहम सियासी मुद्दा… जिसकी वजह से सूबे की सियासत में संशय और गतिरोध बना हुआ है। उसके संबंध में राज्यपाल का यह हास्य बयान लोकतंत्र की मान्य व्यवस्था का चीरहरण ही तो है।
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, नेता विधायक दल, प्रदेश अध्यक्ष व अन्य ने झारखंड के राज्यपाल से शिकायत की, … गंभीर शिकायत, …मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री, वनमंत्री व खनन मंत्री रहते हुये अपने नाम पर खनन पट्टा आवंटित कर संविधान की धज्जियां उड़ा डाली। उनकी विधानसभा सदस्यता निरस्त होनी चाहिये। मुख्यमंत्री के विधायक भाई बसंत सोरेन पर खनन कंपनी में सक्रिय साझेदार होने का आरोप लगा। राज्यपाल रमेश बैस ने उक्त शिकायत को मंतव्य व सुनवाई के लिए भारतीय चुनाव आयोग (Election Commission of India) को भेज दिया। महीनों सुनवाई चली और आखिरकार चुनाव आयोग के निर्णयात्मक मंतव्य के लिफाफे झारखंड राजभवन पहुँच जाने की खबरें सुर्खियां बटोरने लगीं।
बंद लिफाफे को लेकर सूबे में सियासी बयानबाजी और तीन तिकड़म का दौर चालू हो गया। सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष लोकतंत्र की दुहाई देकर सियासी विलाप में जुट गया। और, संविधान की आत्मा के पहरेदार राज्यपाल ने मौन की चादर ओढ़ ली। लंबे समय बाद उनकी चुप्पी टूटी भी तो ऐसे वक्तव्य से जिसने उनके पद की गरिमा को ही तार-तार कर दिया।
प्रसार, TRP और Views की अंधी दौड़ में लगी मीडिया ने भी राज्यपाल के हास्य वक्तव्य को सुर्खियां बनाने का रुटीन पूरा कर लिया।
क्या राजभवन से ये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि सूबे में जारी सियासी अनिश्चितता को वे विराम क्यों नहीं देते। बंद लिफाफे को लेकर झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस की चुप्पी से अब राजभवन के राजनीतिकरण की बू आ रही है। ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
राज्यपालों के पद को लेकर अभी तक तीन बातें मानी जाती रहीं हैं। एक, यह शोभा का पद है। दो, इस पद पर नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है और तीसरे हमारी संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधि है।
केंद्र सरकार राजपाल से जैसे चाहे काम कराए। जब चाहे नियुक्त करे और जब चाहे हटाए। लेकिन ये धारणाएं सुप्रीम कोर्ट के साल 2010 के एक फ़ैसले के पहले की परिस्थितियों के आधार पर बनी हैं।
राज्यपाल के पद का दुरुपयोग लगभग सभी सरकारों ने किया है। कांग्रेस को खासतौर से इसका श्रेय जाता है। यह काम पचास के दशक से चल रहा है। जब केरल की सरकार को बर्ख़ास्त करने में राज्यपाल का इस्तेमाल किया गया।
राज्यपालों की राजनीतिक भूमिका को लेकर भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। लंबे अरसे तक राजभवन राजनीति के अखाड़े बने रहे।
अगस्त, 1984 में एनटी रामाराव की सरकार को आंध्रप्रदेश के राज्यपाल रामलाल की सिफ़ारिश पर बर्ख़ास्त किया गया था।
उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, झारखंड में सैयद सिब्ते रज़ी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज और गुजरात में कमला बेनीवाल के फ़ैसले राजनीतिक विवाद के कारण बने थे।
अनेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों की भूमिका की आलोचना भी की है।
जब राजनेता-राज्यपाल का मुकाबला दूसरी धारा के मुख्यमंत्री से होता है तब परिस्थितियाँ बिगड़ती ही हैं।
सन 1994 में तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जे जयललिता और राज्यपाल एम चेन्ना रेड्डी के बीच टकराव का नुकसान प्रशासनिक व्यवस्था को उठाना पड़ा था।
झारखंड में भी फिलहाल बंद लिफाफे को लेकर जारी चुप्पी भी सूबे के विकास और प्रशासनिक क्रियाकलाप को ही प्रभावित करता दिख रहा है।
संघीय व्यवस्था में राज्य-कार्यपालिका के औपचारिक प्रमुख के रूप में राज्यपाल काम करता है।
राजभवन एक अहम संस्था है, जो हमारी संघीय व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। झारखंड राजभवन से भी यही अपेक्षा है कि राजभवन से जुड़ी व्यवस्थाओं को साफ और पारदर्शी बनाये और नजीर पेश करे। यह बेहतर वक्त है।
क्या लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा की रक्षा के लिए कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होनी चाहिए ? कौन खींचेगा यह रेखा ? और यह खींच भी दी गई तो इसका पालन हो, ये कौन सुनिश्चित करेगा ?
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने एक इंटरव्यू में कहा था कि राज्यपाल की भूमिका में पार्टी से ऊपर उठकर कार्य करने की आवश्यकता होती है। राज्यपाल पद पर नियुक्ति की घोषणा के बाद उन्होंने तो बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता के साथ सभी पदों से इस्तीफा भी दे दिया था।
उन्होंने कहा था कि राज्यपाल नियुक्त करने की जो परंपरा है सो है। लेकिन नियुक्ति के बाद राज्यपाल को पार्टी के हितों के ऊपर उठकर काम करना चाहिए।
प्रश्न यह है कि झारखंड के राज्यपाल राजभवन का जाने अनजाने जो राजनीतिकरण कर रहे हैं। उस पर सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए ?
2004 में भाजपा के पूर्व सांसद बीपी सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। जिस पर मई 2010 में अदालत की संविधान पीठ ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे।
अदालत ने कहा था कि राज्यपाल केंद्र सरकार का एजेंट नहीं है और न किसी राजनीतिक टीम का सदस्य है।
इसके पहले सरकारिया आयोग की सलाह थी कि राज्यपाल का चयन राजनीति में सक्रिय व्यक्तियों में से नहीं होना चाहिए। कम से कम केंद्र में सत्तारूढ़ दल का व्यक्ति तो कदापि नहीं।
आयोग की सलाह थी कि राज्यपालों का चयन केंद्र सरकार नहीं, बल्कि एक ‘स्वतंत्र समिति’ करे। इसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, देश के उप राष्ट्रपति और राज्य के मुख्यमंत्री को भी होना चाहिए।
सरकारिया आयोग का यह भी कहना था कि संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल को केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि संघीय व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण सेतु के रूप में देखा था।
आयोग का ये भी मानना था कि पद छोड़ने के बाद उसकी नियुक्ति लाभ के किसी पद पर नहीं होनी चाहिए।
खैर उपरोक्त तथ्यों पर गौर करते हुये इस विषय पर चिंतन जरूर होना चाहिए कि बंद लिफाफे को लेकर झारखंड राजभवन का दीर्घ मौन क्या लोकतंत्र का चीरहरण नहीं है?
हेमंत और उनके भाई दोषी हैं या निर्दोष और उनकी राजनीतिक भवितव्यता क्या है ? इस निर्णय को लिफाफे में बंद रख झारखंड के राज्यपाल लोकतंत्र और संविधान की कौन सी परिपाटी गढ़ना चाहते हैं ? ये तो वही जानें किन्तु उनकी चुप्पी… बंद लिफाफे की सियासत में उनकी सहभागिता की ओर ही इशारा करता दिख रहा है।
– कुमार कौशलेंद्र (Before Print News@BeforePrintNews · Media/news company)