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‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह कवि रोहित कौशिक की चार कविताएँ

हिंदी में फूल-पत्तियों, पहाड़, झरनों पर सैकड़ों मनमोहक कविताएँ लिखी गयी हैं और आज भी लिखी जा रही है। लेकिन सवाल है कि उन कविताओं में प्रकृति की चिंता कितनी है ? आज पूरी दुनिया में प्राकृतिक आपदाएं जिस तरह से कहर ढा रही है, उसके लिए मानवजाति ही जिम्मेदार है।

आधुनिकता की भूख और पूंजीवाद की मिलीभगत से मनुष्य ने प्रकृति को नोच डाला है। लेकिन इस विनाश के परिणाम से सब आँख मूंदे बैठे हैं और फिर कोई बड़ी आपदा आई तो हाय-तौबा करने लगते हैं। ऐसे में कोई कवि जब प्रकृति की चिंता करते हुए कविता रचता है तो वह सार्थक हो जाता है।

रोहित कौशिक हमारे समय के गंभीर कवि और कलमकार हैं। प्रकृति के बारे में उपरोक्त कही गयी बातें, मैंने उनकी प्रस्तुत कविताओं को पढ़ते हुए महसूस किया है कि उन्हें इसकी गहरी चिंता है। यह बात आप भी इन कविताओं को पढ़ते हुए महसूस कर सकेंगे।

उपभोक्तावाद के इस दौर में सब कुछ नोच कर आगे बढ़ना मनुष्य की भूख है। लेकिन वह भूल जाता है कि उसकी यह भूख एकदिन उसकी पूरी नस्ल को निगल लेगी।

ऐसे में कवि रोहित कौशिक प्रकृति की चिंता करते हुए हमें चेतावनी दे रहे हैं कि सम्भल जाओ, नहीं तो विनाश हो जायेगा। यह काम एक जागरूक कवि-नागरिक ही कर सकता है। रोहित कौशिक की ये पंक्तियाँ देखिये :-

“यह जो दिख रहा है बाढ़ का ढेर सारा पानी

दरअसल पानी नहीं

हमारी अव्यवस्था के आँसू हैं

प्रकृति का क्रोध और रुदन है

कि बाढ़ में तैरते परिवार भी

तरस रहे हैं पानी के लिए।”

दरअसल यह कवि की पीड़ा है, वह इस धरती की खैर चाहते हैं, वह मानवजाति को आने वाले विनाश से बचाना चाहते हैं। मनुष्य जाति को ऐसे कवि-मनुष्यों के प्रति आभारी होना चाहिए।

बतौर कवि रोहित कौशिक अपना कर्तव्य कर रहे हैं, उन्हें पढ़कर मनुष्य भी सीख ले, प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों का। शायद यही उम्मीद कवि को भी है। पढ़िए रोहित भाई की सार्थक कविताएँ।  

– नित्यानंद गायेन (e-mail :- nityanand.gayen@gmail.com / blogs:- http://merisamvedana.blogspot.in/ )

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1. प्रकृति से रिश्ता

धरती को धरती माता

साँप को नाग देवता

गाय को गाय माता

गंगा को गंगा मैया

तुलसी को तुलसी माता

सूरज को सूर्य देवता

और चाँद को चंदा मामा

पुकार कर हमने जोड़ लिए

प्रकृति से अपने रिश्ते।

रिश्ते जोड़ने और निभाने में

होता है फर्क

सम्बन्धों में गणित लगाकर

आपसी रिश्ते ही कहाँ निभा पाए हम।

हम लगे रहे रिश्ते जोड़ने में

सिर्फ जोड़ने पर ही

केन्द्रित रहा हमारा ध्यान

कि धन और वैभव के साथ

जोड़ते चले गए

अपनी इच्छाएँ, अपने स्वार्थ।

हमारी इच्छाओं के बोझ तले

कराहते रहे रिश्ते

कराहती रही प्रकृति

जबकि हमें

रिश्तों को देना था एक नया अर्थ

ताकि मुस्कुराती प्रकृति

महकता हमारा जीवन।

अब जबकि घायल है प्रकृति

और गायब है जिंदगी का राग

हम लड़ रहे हैं एक नकली लड़ाई

कि नकली फूलों से

नहीं महकाया जा सकता जीवन।।

2. जिंदगी धुआँ-धुआँ

यह जो उठ रहा है काला धुआँ

धीरे-धीरे निगल रहा है

हमारी जिंदगी

पर धुएँ से कीमती नहीं है जीवन

इसलिए धुआँ-धुआँ है जिंदगी।

धुआँ हमारे संस्कारों में है

यज्ञ की पवित्र आहुति के बिना

अधूरा हमारा जीवन

हर जन्मदिन पर बढ़ता गया धुआँ

कि धुएँ ने ही जवान किया हमें।

जब गगनचुम्बी चिमनियों से निकला धुआँ

तब आश्वस्त हुए हम

कि धुआँ ही बनेगा

हमारे विकास का सारथी

धुआँ जितना काला हुआ

उतना ही अधिक हुआ विकास

कि धुएँ के सहारे

विकास पहुँचा आकाश तक।

धुएँ के सहारे हम भी

आकाश में पहुँचकर

तारे बन जाएँगे

उससे पहले

एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को

फूल नहीं

धुएँ से बनी कलाकृति करेगा भेंट।।

3. प्रकृति की मुस्कान

हवा में झूम रहा है पेड़।

नृत्य कर रही हैं पत्तियाँ।

दाँत फाड़कर हँस रहे हैं फूल।

पक्षियों द्वारा कुतरकर खाया गया पका फल

गिर चुका है धरती की छाती पर।

जीम रहे हैं

फल पर उछल-कूद मचाते

छोटे-छोटे जीव-जन्तु।

पेड़ की टहनियों पर ऐसे दौड़ रही है गिलहरी

जैसे उसे निपटाने हो

घर-गृहस्थी के दस काम।

अभी-अभी उड़ान से लौटकर आया पंछियों का झुंड

मतलबी हो चुकी दुनिया के बारे में

कर रहा है जरूरी बैठक।

पत्तियों के बीच छिपा गिरगिट

आदमी की तरह

बदल रहा है रंग।

घास के साम्राज्य में

पूरे ठाठ से मौजूद है

जीवन की हलचल।

घृणा की आग से

सूख चुकी है संवेदना की नदी

पर मिट्टी अभी भी समेटे है

अपने हिस्से की नमी।

पेड़ के नीचे

खाट पर लेटे वृद्ध के सिर पर

अभी-अभी एक पंछी ने

बीट कर चहचहाना शुरू किया है

कि वृद्ध के चेहरे पर मुस्कुराने लगी है प्रकृति।।

4. पानी ही बचाएगा चेहरों का हरापन

लगातार कम हो रहा है पानी

धरती के भीतर ही नहीं

हमारी आँखों में भी।

यह जो दिख रहा है बाढ़ का ढेर सारा पानी

दरअसल पानी नहीं

हमारी अव्यवस्था के आँसू हैं

प्रकृति का क्रोध और रुदन है

कि बाढ़ में तैरते परिवार भी

तरस रहे हैं पानी के लिए।

जडं़े खींच रही हैं मिट्टी से

अपने हिस्से का पानी

पेड़ की धमनियों में चढ़ता पानी

पत्तियों को और हरा कर रहा है

पत्तियाँ लौटा रही हैं

प्रकृति को उसका पानी

कि पत्तियों के जरिए

लौट रहा है प्रकृति का हरापन।

हम खींच रहे हैं सबके हिस्से का पानी

सबके हिस्से पर अपना अधिकार जमाते हुए।

हमारी धमनियों में चढ़ता

सबके हिस्से का पानी

हमारी नाक को और बड़ी बनाता है।

जितनी बड़ी होती जाती है नाक

उतना ही कम होता जाता है पानी।

ज्यों-ज्यों पानी कम हो रहा है

त्यों-त्यों चेहरों पर बढ़ रहा है पीलापन

इस कठिन समय में पानी ही बचाएगा

चेहरों का हरापन

कि बारिश की बूँदें ही हटाएगी माथे से पसीने की बूँदें।।

*रोहित कौशिक, 172, आर्यपुरी, मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश -251001, मोबाइल: 9917901212.

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