parliament election 2024

parliament election 2024

बिहार की यह उठापटक 2024, यानी आगामी लोकसभा चुनाव, की राजनीतिक मोर्चेबंदी का एक हिस्सा है। मैडम सोनिया गांधी शायद इस बात पर सहमत हो चुकी हैं कि उनकी पार्टी गैरकांग्रेसी नेतृत्व स्वीकारने के लिए तैयार है। कांग्रेस ने 1996 में देवगौड़ा के लिए ऐसा ही किया था। कांग्रेस के इस आश्वासन से उत्साहित नीतीश ने एक बाज़ी खेली है कि वह 2024 में भाजपा नेतृत्व को चुनौती देंगे।

बिहार में पिछले दिनों जो राजनीतिक घटनाक्रम हुए, उससे उत्साहित और हतोत्साहित होने वालों की अलग-अलग जमातें हैं। इसकी व्याख्या भी विभिन्न रूपों में हो रही है। एक पक्ष का मानना है कि बिहारी चाणक्य ने गुजराती चाणक्य को पटखनी दे दी; वहीं दूसरा पक्ष मानता है कि नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपनी विश्वसनीयता खोई है।

आम आदमी केलिए नीतीश का यह सत्ता परिवर्तन अकबर-बीरबल का सड़क-छाप कार्टून हो गया है, जिसमें एक कार्टून जो बीरबल दीख रहा होता है, उलट देने पर अकबर बन जाता है। जुलाई 2017 में महागठबंधन से छिटक कर एनडीए का हिस्सा बने नीतीश अगस्त 2022 में एक बार फिर महागठबंधन के हिस्सा हो जाते हैं। अकबर को बीरबल और बीरबल को अकबर बनते देर नहीं लगती। यह जादू भरी राजनीति है, जो बिहार में होती रहती है।

लेकिन खबर है कि बिहार की यह राजनीति एक बड़ी और दूरदर्शी राजनीति का हिस्सा है। पता नहीं इस खबर में कितनी सच्चाई है कि बिहार की यह उठापटक 2024, यानी आगामी लोकसभाचुनाव की राजनीतिक मोर्चेबंदी का एक हिस्सा है। मैडम सोनिया गांधी शायद इस बात पर सहमत हो चुकी हैं कि उनकी पार्टी गैरकांग्रेसी नेतृत्व स्वीकारने केलिए तैयार है।

कांग्रेस ने 1996 में देवगौड़ा के लिए ऐसा ही किया था। कांग्रेस के इस आश्वासन से उत्साहित नीतीश ने एक बाज़ी खेली है कि वह 2024 में भाजपा नेतृत्व को चुनौती देंगे। ख़याल बुरा नहीं है। राष्टीय जनता दल को भी इसी बहाने तुरंत आधी सत्ता मिल रही थी। उसे और क्या चाहिए! उसका तो दो उद्देश्य एकसाथ पूरा हो रहा था, भाजपा को सत्ता से दूर रखना और सत्ता में आधी की हिस्सेदारी!

नीतीश कुमार के इस निर्णय से देश का सेकुलर खेमा खुश है, इसमें दो राय नहीं, हालांकि इसमें अपेक्षित उत्साह का अभाव है, जिसका कारण नीतीश की प्रश्नांकित विश्वसनीयता है। अब मुख्य सवाल यह बनता है कि क्या सचमुच नीतीश के नेतृत्व में ऐसे राजनीतिक विकल्प की उम्मीद बनती है जो 2024 में नरेंद्र मोदी और भाजपा को पटखनी दे सके ?

2024 के चुनाव में लगभग बीस महीनों की देर है। समय काफी है, लेकिन मौजूदा विपक्ष की मुश्किलें भी कम नहीं हैं। भारत बहुत बड़ा देश है। दक्षिण से उत्तर और पूरब से पश्चिम को समझना किसी केलिए भी मुश्किल रहा है। अंग्रेजों के पहले किसी ने इसे एक सूत्र में इस तरह नहीं बाँधा था। राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी-नेहरू की कवायद ने इसे लोकतान्त्रिक राजनीति से संवारा। आज़ादी के बाद कांग्रेस और कुछ साल पहले से भाजपा इस अभियान में अपने तरीकों से जुडी रही है।

नरेंद्र मोदी ने अपने गुजराती पूंजीवादी मॉडल और संघी हिंदुत्व के मिले-जुले तकनीक से इसे संवारने की कोशिश की थी, जो बहुत सफल नहीं हुई और अब पूर्वोत्तर सहित दक्षिणी राज्यों में कुछ अलग तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। भाजपा-संघ के पास एक प्रशिक्षित टीम है ,जो अनवरत काम करती रहती है। इसी टीम के बूते उसने त्रिपुरा में माकपा को उखाड़ फेंका और पूर्वोत्तर में अपनी स्थिति बेहतर कर ली। बंगाल में वह सरकार में भले नहीं हो, मजबूत स्थिति में जरूर है। देश के दूसरे हिस्सों में भी उसकी स्थिति बेहतर है।

ऐसे में नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत का आकलन भी जरूरी होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्टों के साथ लड़कर उन्हें दो सीटें मिली थी। 2019 में भाजपा के साथ मिलकर लड़ने से 16 सीटें मिली। पूर्वोत्तर के मणिपुर में भी जदयू का थोड़ा प्रभाव है। अन्य किसी राज्य में एक सभा करने लायक भी जदयू की औकात नहीं है। ऐसे में क्या वह और उनकी पार्टी सचमुच नरेंद्र मोदी की राजनीति को चुनौती दे सकेंगे ? 1996 में देवगौड़ा की बात कुछ और थी।

उस समय का जनता दल कम से कम दो राज्यों बिहार और कर्णाटक में मजबूत था। उस समय कम्युनिस्ट अच्छी संख्या में आ जाते थे। दूसरे राज्यों में कई प्रांतीय दल मजबूत-हाल थे। कांग्रेस भी आज की तरह नहीं थी। उसके 140 सदस्य थे। क्या बीस महीने बाद वह स्थिति आ सकती है? मुझे उम्मीद कम है। हालांकि कुछ गणितीय सूत्र उन्हें उत्साहित कर रहे हैं कि भाजपा को यदि किसी भी तरह चालीस-पचास सीटें कम हो जाएं तो वह बहुमत खो देगी। ख्याल बुरा नहीं है, लेकिन टास्क कठिन है।

मौजूदा विपक्ष के पास दो बड़े संकट हैं। पहला संकट उससे जुडी पार्टियों के गैरजनतांत्रिक ढाँचे का है और दूसरा नैतिक सत्ता संपन्न राष्ट्रीय नेता के अभाव का। 2014 और 2019 के चुनाव में इसी कारण भाजपा आगे बढ़ी। भाजपा अपनी ताकत से नहीं, विपक्ष की कमजोरी से जीती। लेकिन अब उसने निश्चित तौर पर अपने ढाँचे को भी दुरुस्त कर लिया है। मौजूदा भाजपा के मजबूत किले को विपक्ष कितना नुकसान पहुंचा पाएगा यह अभी नहीं कहा जा सकता।

यह जरूर है कि बिहार में महागठबंधन की स्थिति बेहतर हो सकेगी। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव जैसी स्थिति बनेगी इसकी उम्मीद कम है। कारण यह कि 2015 की स्थितियां बदल चुकी हैं। 2014 में चुनावी जीत से उत्साहित भाजपा 2015 में मगरूर थी। अमित शाह 185 + का लक्ष्य निर्धारित कर इत्मीनान थे। जमीनी तैयारी नदारद थी। 2014 के चुनाव में पिटे राजद और जदयू जब इकठ्ठा हुए तब कार्यकर्ताओं में अचानक उत्साह आ गया। इस उत्साह की ताकत को भाजपा नहीं समझ सकी थी। वह बुरी तरह पिट गई।

लेकिन अब ऐसा शायद ही हो। उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ पूरी सामाजिक लामबंदी थी। यादव-मुसलमान तो थे ही, राजभर, जयंत, शाक्य जैसे अनेक नेताओं का संग साथ भी था। मैंने लखनऊ में समाजवादी खेमे का उत्साह देखा था। मैं उस उत्साह से इतना प्रभावित हुआ कि भाजपा के बुरी तरह पराजित होने का अनुमान कर लिया। इसे लिख भी दिया। लेकिन नतीजा जो आया वह सामने है। भाजपा को बहुमत मिला और बाकी पिट गए।

निश्चय ही बिहार की स्थिति थोड़ी भिन्न है। यहाँ काशी, प्रयाग,अजुध्या, मथुरा, विंध्याचल जैसे हिन्दू तीर्थ नहीं हैं जहाँ हज़ारों की संख्या में पण्डे-पुरोहित होते हैं जो चुनावों में भाजपा के मौन प्रचारक बन जाते हैं। बिहार सामाजिक आंदोलनों का पुख्ता इलाका भी रहा है। लेकिन किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा जमीनी स्तर पर मजबूत हुई है। भाजपा की स्थिति अति पिछड़े तबकों में मजबूत हुई है। सामान्य वर्ग की जातियों पर आज भी उसका प्रभाव है। दलितों का एक हिस्सा भी उसके साथ है। ऐसे में उसने अपने सोशल इंजीनियरिंग की थोड़ी-सी मरम्मत कर ली तो वह उत्तरप्रदेश की तरह बाज़ी जीत सकती है। ऐसे में महागठबंधन केलिए जो मुश्किलें होंगी उसका अनुमान कोई भी कर सकता है।

देश के भाजपा विरोधी खेमे में बिहार की राजनीतिक घटनाओं को लेकर यदि कोई उत्साह बनता दिख रहा है तो मेरी समझ से उसके आधार पुख्ता नहीं हैं। कांग्रेस, वामपक्ष और अन्य समाजवादियों का समाज के मध्यवर्ग पर प्रभाव लगातार छीज रहा है। समाजवादी विश्वास और विचार का केंद्रीय तत्व था निजी संपत्ति की अवधारणा की समाप्ति और उत्पादन के बड़े साधनों पर सामाजिक मिलकियत की सोच।

1991 में नरसिंह राव की कांग्रेसी हुकूमत ने देश में उदारवादी आर्थिक नीतियों की घोषणा के साथ नेहरूवादी मिश्रित आर्थिक ढाँचे को एकबारगी ध्वस्त कर दिया। इसके साथ ही भारतीय राजनीति के बीच समाजवादी मूल्यों की विदाई होने लगी। जाति और धर्म के सवाल आगे होने लगे। मंडलवादी उभार में आर्थिक सवालों को पीछे करने का आग्रह प्रबल हुआ। इसी बीच लोहियावादी कोटा-पॉलिटिक्स को भाजपा ने पूरी तरह झटक लिया। आज वह बार-बार अपने आदिवासी मूल की राष्ट्रपति और पटेल के शब्दों में घांची-मोची प्रधानमंत्री के बैनर को सामने रखती है।

समाजवादी मूल्यों और उनके नेतृत्व में नई पीढ़ी की दिलचस्पी लगातार कम हो रही है। दूसरे समाजवादी स्वप्न भी मज़ाक के विषय बनते जा रहे हैं। उसके कुछ व्यावहारिक पक्ष सार्वजानिक तौर पर आत्मसात कर लिए गए हैं। समाजवाद का रूपांतरण जिस सामाजिक न्याय की विचार सरणी में हुआ था, वह भी अब वैचारिक स्तर पर बासी प्रतीत हो रहा है। पुराने समाजवादियों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि समकाल की राजनीति का किस तरह मुकाबला करें। उनके विचार और औजार (रणनीति) बहुत पुराने हो गए हैं। उनके संघटन भी परिवारवाद और सुप्रिमोवाद सहित कई मारक व्याधियों के शिकार हो गए हैं।

ऐसे में चाहिए तो यह था कि 1977 की तरह तमाम पार्टियां एकजुट हों और एक निश्चित कार्यक्रम के साथ देश के सामने आएं। ऐसा यदि हुआ तो वे भाजपा को पटखनी दे सकते हैं। लेकिन इसके लिए किसी जेपीनुमा नेता की जरूरत होती है जो विपक्ष के पास फिलहाल उपलब्ध नहीं है। नीतीश कुमार ने अपने आठवीं दफा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरत बाद प्रेस से संवाद के क्रम में मोदी का नाम लिए बगैर कहा कि 2014 में जो आए हैं, वे 2024 में आएँगे तब न !

एक राजनेता का इस तरह की उम्मीद रखना बुरा नहीं है। लेकिन उसे अपने सपने केलिए सम्यक कोशिश भी करनी चाहिए।

Premkumar Mani http://Premkumar Mani

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *