आप विषय को देख कर सोचने लगे होगें कि अरे ये क्या लिख दिया इन्होंने। हमने तो सुना है कि अमरीका में कभी भी किसी के साथ कुछ गलत नहीं होता। लेकिन ये ख़बर तो हमें सोचने पर मजबूर कर रही है कि वहां भी सब ठीक नहीं है। न्यायिक प्रणाली भी पूरी तरह से ईमानदार नहीं है। वरना, जिस अमेरिका को कहते हैं कि दुनिया भर में अमेरिका खुद को न्याय, समानता और नागरिक अधिकारों का चैंपियन देश बताते नहीं थकता। जबकि आए दिन वहां से ही रंगभेद, और धार्मिक आधारों पर ज्यादतियों की एक से बढ़ कर एक घटनाऐं ख़बरों के रूप में देखने और सुनने में आती रहती है। अक्सर सुनने में यह भी आता है कि दोनों ही देश यानि अमरीका और भारत एक नैसर्गिक मित्र की तरह हैं। अमेरिका को भारत की महत्ता अब बहुत अच्छे से समझ में आने लगी है। इसके बावजूद फिर भी वहां पर सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। हाल ही में अमेरिका में ऐसा ही मामला एक भारतीय व्यापारी के साथ हुए क़ानूनी ज्यादती को लेकर।

सूत्रों के हवाले से पता चला है कि नॉर्थ कैरोलिना के एक भारतीय व्यापारी की समस्त व्यापारिक संपति को वहां की स्थानीय कोर्ट ने बगैर किसी कानूनी आधार पर स्थानीय मकान मालिक को उपहार में दे दिया क्योंकि उक्त भारतीय व्यापारी अपने मामले की सुनवाई स्वंय कर रहा था या यूं कहिए कि उसे स्थानीय कोर्ट से सही न्याय की उम्मीद थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और जब वही मुकदमा बड़ी अदालत में गया तो इसी कोर्ट ने पेड कॉन्ट्रेक्ट के तहत प्राप्त की गई सुनवाई की प्रतिलिपि में ही भारी रद्दोबदल कर दिया और जब इसे सुधारने की मांग की गई तो उक्त मांग को भी ठुकरा दिया।

इस भारतीय व्यापारी ने मजबूर होकर तब कोर्ट प्राधिकार के खिलाफ फेडरल कोर्ट में अपने साथ हुए भेदभाव व रंगभेद के खिलाफ और स्थानीय कोर्ट में ब्रीच ऑफ कॉन्ट्रेक्ट का मुकदमा ठोक दिया। स्थानीय राज्य सरकार के पास वादी भारतीय व्यापारी की दलिलों का कोई जबाव न था सो वे दोनों ही कोर्ट्स में डिफॉल्ट कर गए। पहली बार तब दिखा कि वही कोर्ट जो कल तक सरासर बेईमानी पर उतरी पड़ी थी अब आगे बढ़कर इन्ट्री ऑफ डिफॉल्ट भी लगा रही है ताकि वादी को हुए नुकसानों की भरपाई स्थानीय स्तर पर कर मामले को रफा-दफा किया जा सके। वादी ने बगैर समय गंवाए नुकसान के दावे कर भी दिए पर, अब जाकर उनका असली चेहरा सामने आने लगा है।

दरअसल, स्थानीय राज्य सरकार वादी भारतीय व्यापारी के साथ हुए दुर्व्यवहार से आहत नहीं बल्कि क्रुद्ध है कि कैसे इस प्रकार एक भारतीय व्यापारी ने उन्हें बगैर किसी वकील की मदद से पटखनी दे दी है। इसका सबूत इस बात में मिलता है कि वादी के बारंबार की पूछताछ के बाद भी कोर्ट प्राधिकार इस बात पर चुप्पी साधे बैठी है कि कैसे एक प्रतिवादी (स्टेट) अपने ही मामले का जज भी हो सकता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो उन्हें इस मामले को किसी उच्च ट्रीब्यूनल या अलग ज्यूरीक्शन में दे देना चाहिए पर, वे इस बात पर अड़े हैं कि वे खुद ही हर्जाने का भुगतान करेंगे पर, इस मामले को कहीं न जाने देंगे।

ऐसे में यह लाजिमी है कोर्ट यदि मनमानी भी करे तो वादी के साथ पुनः एक ऐसी धोखाघड़ी हो सकती है जिसकी शिकायत भी करना तब वादी के वश में न होगा। विदित हो कि पहले मामले में हर्जाने की कुल राशि, खोए व्यापार की कुल कीमत 62 हजार डॉलर व उस पर आमद हुए पांच साल की कुल कमाई के अतिरिक्त डॉलर से अधिक की है जो फेडरल के और प्यूनिटिव को लेकर कुल अमेरिकी डॉलर की है जो भारतीय रुपयों में तकरीबन बड़ी रकम बैठती है।

अमरीका में हर्जाने की रकम का मिलना बड़ी बात नहीं है बल्कि बड़ी बात यह है कि एक प्रवासी भारतीय के साथ खुद को न्याय के देवता देश के रूप में प्रस्तुत करने वाले देश में आखिर इस तरह की वारदात हुई तो हुई क्यों। अब देखना यह है कि वहां की फेडरल कोर्ट में इस भारतीय व्यापारी के साथ हुए भेदभाव व रंगभेद के खिलाफ और स्थानीय कोर्ट में ब्रीच ऑफ कॉन्ट्रेक्ट के मुक़दमे में क्या फैसला देता है। – मनु चौधरी

@manuchaudhary @world360withmanu

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