भारतीय प्रजातंत्र का दुर्भाग्य है कि वोटबैंक के लिये यहाँ की राजनीतिक दल धर्म और संस्कृति को नीचा दिखाने तथा विकास को अवरुद्ध करने के लिए असभ्य निति एवं राजनितिक मापदंडो का सहारा भी लेती है। कहना न होगा कि आज जब काल के प्रभाव तथा संचार आदि माध्यमों से जब देश में राष्ट्र और सनातन धर्म के प्रति लोगों में एक नवीन चेतना का उदय हो रहा है तो इसे तोड़ने एवं लोगों में भ्रम पैदा करने के लिये बिहार के अवसरवादी एवं भ्रष्ट राजनितिक दल लोगो को बाँटने की साजिश कर रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि सभी राष्ट्रिय और क्षेत्रीय दल इसको किसी न किसी रूप में बढ़ावा दे रहे हैं।
बिहार में जो राजनीतिज्ञ और राजनितिक दल रामचरितमानस का विरोध करती हो, सवर्ण समाज के त्याग और बलिदान को नकार कर उनको अपमानित करने के लिए स्लोगन देती हो, जातिगत जनगणना का समर्थन करती हो, जातिय और सांप्रदायिक तुष्टिकरण को ही राजनीति तथा अपना धर्म मानती हो उन सभी का विरोध होना चाहिए।
बिहार ज्ञान एवं सभ्यता की भूमि रही है। प्राचीन काल से यह भूमि विभिन्न सामाजिक-धार्मिक आंदोलनों का केंद्र रहा है। यहीं लोकतांत्रिक मूल्यों और गणतंत्र का उदय हुआ। पर आज कुछ लोग और दल बिहार में जिस मानसिक दिवालियापन का परिचय दे रहें हैं वह वास्तव में अशोभनीय है। बिहार का मौन देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यहाँ के लोग इन असभ्य लोगों के साथ खड़े हैं। लगता है इतिहास में ऐसे ही असभ्य लोगो ने बख्तियार खिलजी का समर्थन किया होगा नालंदा विश्वविद्यालय को विध्वंश करने के समय। आज ऐसे ही लोग राजनीति में चाटुकारिता और परिवारवाद को बढ़ाने हेतु उत्तरदायी हैं ।
नालंदा ! तात्कालिक विश्व का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय। कहते हैं, संसार में तब जितना भी ज्ञान था, वहाँ सबकी शिक्षा दीक्षा होती थी। सारी दुनिया से लोग आते थे ज्ञान लेने… बौद्धिकता का स्तर वह कि बड़े बड़े विद्वान वहाँ द्वारपालों से पराजित हो जाते थे। पचास हजार के आसपास छात्र और दो हजार के आसपास गुरुजन ! सन 1199 में मात्र दो सौ सैनिकों के साथ एक लुटेरा घुसा और दिन भर में ही सबको मार काट कर निकल गया। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक और उनके बीस हजार छात्र मात्र दो सौ लुटेरों से भी नहीं जूझ सके। छह महीने तक नालंदा के पुस्तकालय की पुस्तकें जलती रहीं।
कुस्तुन्तुनिया ! आज का इस्तांबुल अपने युग के सबसे भव्य नगरों में एक, बौद्धिकों, वैज्ञानिकों, दार्शनिकों की भूमि। क्या नहीं था वहाँ ! भव्य पुस्तकालय, मठ, चर्च महल… हर दृष्टि से श्रेष्ठ लोग निवास करते थे। 1455 में उस्मानी फौज़ (तुर्क सेना) एक इक्कीस वर्ष का युवक उस्मानी सुल्तान मुहम्मद सानी घुसा और कुस्तुन्तुनिया की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी। सबकुछ तहस नहस हो गया। बड़े बड़े विचारक उन लुटेरों के पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाते रहे और वह हँस हँस कर उनकी गर्दन उड़ाता रहा। कुस्तुन्तुनिया का पतन हो गया।
हम्पी ! दक्षिण भारत के सबसे यशश्वी साम्राज्य विजयनगर की राजधानी। वैसा वैभवशाली नगर क्या ही होगा कोई ! बिट्ठल मन्दिर के खंडहर तक की दशा यह कि अलग अलग स्तम्भों पर बजाने से अलग अलग वाद्ययंत्रों के स्वर निकलते हैं। अंदाजा लगाइए विज्ञान का, कलात्मकता का… पर 1565 में चार बर्बर पड़ोसी राज्य मिल कर आक्रमण किये। युद्ध में इधर के भी कुछ सेनानायक मिल गए उनसे। दक्षिण भारत की सर्वश्रेष्ठ सेना पराजित हुई और बर्बरों ने भारत के उस सबसे सुंदर नगर को फूँक दिया। कई महीनों तक उस नगर को लूटा गया और समूची कलात्मकता को तहस नहस कर दिया गया। तनिक सोचिये, लूट कर तो उन्हें धन का लाभ होता था, पर तोड़ने से क्या मिलता था? कुछ नहीं ! बस उनका मन हुआ तो तोड़ दिया।
इतिहास पढिये या वर्तमान, बौद्धिकता सदैव बर्बरों असभ्यों के आगे भयभीत हो जाती है। तार्किक होना, बैद्धिक होना, वैज्ञानिक होना बहुत बड़ी बात है। पर यह भी सही है कि असभ्यता सदैव तर्कों को खण्ड खण्ड कर देती है। तार्किक होना बहुत अच्छी बात है। पर यदि अपने कालखंड की असभ्यता से जूझने की योजना नहीं आपके पास तो आपके सारे तर्क व्यर्थ हैं। आप से बेहतर है वह व्यक्ति, जो तार्किक भले न हो, पर अपने समय की ज्वलंत समस्याओं से जूझ रहा है। और सफल भी हो रहा है…..
आज जरुरत इस बात की है कि हम अपने कालखंड की असभ्यता का प्रतिकार करें और इससे निपटने के लिए सामजिक और राजनितिक मुहीम चलावें। समर्थ बिहार लोगों के बिच जाकर इस असभ्य राजनितिक एजेंडा को उजागर करेगा और राजनितिक रूप से इसका प्रतिकार करेगा। – संजय कुमार एवं एस. के. सिंह, समर्थ बिहार (साभार, सोशल मीडिया से कुछ अंश व् चित्र)