कवि और कविता श्रृंखला में डॉ. प्रेरणा उबाळे की कविता “दरवाजा” …
■ दरवाजा – डॉ. प्रेरणा उबाळे
एक दरवाजा खुल गया
दूसरा बंद दिखाई दिया
पास जाने पर
एक के बाद एक
कई दरवाजे खुलते गए
खिलखिलाहट सुनाई देने लगी
दरवाजा खोलने में देर लगती है
कभी खटखटाना पड़ता है
कभी चाबी से खोलना पड़ता है
कभी ताला तोड़ना भी पड़ता है
कुछ दरवाजे होते हैं कठोर
नहीं खुलने देते खुदको
बने रहते हैं गूंगे
निर्विकार, संवादहीन
अविश्वास की परतें
बढ़ती जाती हैं
होने लगती हैं गहरी
छा जाती है चुप्पी-सी
एक दरवाजा खुल ही जाता है
दूसरे दरवाजे खुलते हैं
अपने-आप
जो होते हैं कठोर
सहते हैं मार हवा, धूप,
बारिश की l
बने रहते हैं पत्थर
उनके कानों तक नहीं पहुँचती
खिलखिलाहट कभी
वे जीते हैं
मरते हैं
कीड़ों की तरह
पर खिलखिलाते कभी नहीं
इंसानों की तरह ! – डॉ. प्रेरणा उबाळे (20 जुलाई 2024)
डॉ. प्रेरणा उबाळे (लेखिका, कवयित्री, अनुवादक, सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत), शिवाजीनगर पुणे-411005, महाराष्ट्र)