बिहार के राजनीतिक दलों का चारित्रिक अंतर्विरोध

बिहार के राजनीतिक दलों का चारित्रिक अंतर्विरोध

बिहार के क़रीब करीब सभी नेताओं की पहचान उनके अपने दल में जातीय, साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय कारणों से है। परिणामस्वरूप ये सभी तथाकथित नेता चौबीस घंटे केवल इसी पहचान को यथोचित बनाये रखने में व्यतीत करते हैं और सत्ता में बने रहने के लिए जोड़-तोड़ करने में व्यस्त रहते हैं। आज के बिहार के राजनीति की यह सबसे बड़ी त्रासदी है। राजनीतिक लूट-खसोट की इस स्थिति में बिहारियों के पास कोई विकल्प नहीं है।

बिहार के वर्तमान सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के भीतर का अंतर्विरोध उभरकर सामने आ रहा है। सभी एक-दूसरे से लड़ने को आतुर लग रहे हैं। बड़ी बात यह है कि यह लड़ाई सरकार के नीतिओं और कार्यक्रमों को लेकर नहीं है। बल्कि वर्तमान उठापटक अपने-अपने जातियों और उप-जातियों का नेता सिद्ध करने का है।

जहाँ एक ओर भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है और देश के कई राज्य इसमें अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं। तो वहीं दूसरी ओर बिहार मानो कबीलाई लड़ाईयों का अड्डा बना हुआ है। प्रमुख रूप से इसके दो कारण लग रहे हैं। प्रथम इस बार नेताओं को बिहारी जनता के मनःस्थिति पता चल गया है। अतः उन्हें जातिवादी राजनीति में अपना भविष्य दिखाई दे रहा है। तो दूसरी ओर सभी को पता है कि लालू यादव सिंगापुर से स्वास्थ्य लाभ लेकर एक बार पुनः बिहार की राजनीति में सक्रिय होने वाले हैं। कहना न होगा कि लालू के आने के बाद बिहार के राजनीति की क्या दिशा-दशा होगी !

राजनीति का भी अपना चरित्र और धर्म होता है जिसे हम घोषणापत्र से परिभाषित करते हैं। आज अगर बिहार के सभी राजनीतीक दलों की विवेचना करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि इनका कोई राजनीतीक चरित्र नहीं है, नीतिओं और कार्यक्रम का अभाव है। क़रीब करीब सभी नेताओं की पहचान उनके अपने दल में सामाजिक, जातीय, साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय कारणों से है। परिणामस्वरूप ये सभी तथाकथित नेता चौबीस घंटे केवल इसी पहचान को यथोचित बनाये रखने में व्यतीत करते हैं और सत्ता में बने रहने के लिए जोड़-तोड़ करने में व्यस्त रहते हैं। आज के बिहार के राजनीति की यह सबसे बड़ी त्रासदी है। राजनीतिक लूट-खसोट की इस स्थिति में बिहारियों के पास कोई विकल्प नहीं है। आये दिन जातीय सम्मेलन हो रहे हैं, इसी आधार पर नये समीकरण बनाये जा रहे हैं पर बिहार राजनीतिक रूप से अनाथ बना हुआ है।

आइये अब एक-एक कर सभी दलों की विवेचना करते हैं।

भारतीय जनता पार्टी : भाजपा विश्व की सबसे बड़ा दल होने का दावा करती है। अपने को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का चैंपियन मानती है। पर बिहार में इसका यह चरित्र नदारद है। इस दल के सभी नेता बिहार में केवल जातीय अस्मिता की बात करते हैं। उल्लेखनीय है कि बिहारियों की इच्छा के विरुद्ध भाजपा ने जातीय समीकरण को बनाये रखने के लिये नीतीश जैसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाये रखा।

बताते चलें कि बिहार के जीवन में एक समय आया था जब जंगलराज से त्रस्त बिहारी राष्ट्रवाद की ओर बढ़ रहे थे। सनातन धर्म के प्रति निष्ठावान हो रहे थे। किंतु नीतीश के तुष्टिकरण के लिये बीजेपी ने जात-पात को बनाये रखना हीं उचित समझा। यही नहीं सनातनी मूल्यों के विपरीत तत्कालीन एनडीए सरकार ने पंचायत स्तर पर शराब की दुकानें खोलीं। प्रत्येक गाँव में क़ब्रगाह का निर्माण कराया गया। यह वही कालखंड था जब सीमांचल की तस्वीर बदलनी आरंभ हुई और अपुष्ट श्रोतों के अनुसार लाखों बंगलादेशियों को बसा दिया गया। यही नहीं, कांग्रेसी संस्कृति को आगे बढ़ाते हुए किसी नेता को पनपने नहीं दिया गया। ताकि बिहार को दिल्ली से संचालित किया जा सके।

पुनः सुशिल मोदी जैसे नेता को बिहार में वर्षों तक तरजीह दिया गया। जबकि सर्वविदित था कि सुशिल मोदी नितीश के जूनियर बने रहे और बीजेपी के प्रतिनिधि के रूप में सरकार में रहते हुए नीतीश के हाँ में हाँ करते रहे। यह वही सुशिल मोदी हैं जिन्होंने नितीश को प्रधानमंत्री मटेरियल बताया था। ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा को बिहार की राजनीति और सर्वांगीण विकास में दिलचस्पी नहीं है। बिहार से ज्यादा से ज्यादा सांसद भाजपा को केंद्र में सरकार बनवाने में मदद कर सके उसमें ही ज्यादा ध्यान है। इसी कारण भाजपा ने नितीश को इतने दिनों तक प्रमोट किया और अब जब नितीश कुमार भाजपा से अलग हो गए तो अब भाजपा राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था का रोना रो रही है।

कांग्रेस की बात की जाय तो आज बिहार में इस दल का अस्तित्त्व ना के बराबर है। बिहार में इसे अपनी राजनीतीक दिशा तय करने के लिए दिल्ली के केंद्रीय नेतृत्व के इशारे का इन्तजार रहता है। कांग्रेस ने जिस मुस्लिम तुष्टिकरण की शुरुवात की थी उसको आज राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने हथिया लिया है। बिहार में कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ता चला जा रहा है और कांग्रेस की राजनीतिक जमीन पर क्षेत्रीय पार्टियों का कब्ज़ा होता जा रहा है। भविष्य में भी इसके मृतप्राय रहने की हीं संभावना है।

राष्ट्रीय जनता दल (राजद ) की शुरुवात बिहार में कांग्रेस के शासन से उत्पन्न असंतोष से हुई थी। लेकिन बाद में राजद ने अपने को पूरी तरह से परिवारवाद और जातिवाद में बांध लिया। कांग्रेस से भी दो कदम आगे चलकर राजद ने मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण बनाया और बिहार में एक नए राजनीतिक पारी की शुरुवात की। जंगलराज, घोटाला, अपहरण इत्यादि का बिहार को पर्याय बनाने में राजद का एकाधिकार रहा। बिहार से बाहर बिहारियों को हेय दृष्टि से देखे जाने का श्रेय लालू प्रसाद और राजद के कतिपय नेताओं को जाता है। देश के राजनीतीक पटल पर राजद ने यह सिद्ध कर दिया कि कैसे चुनाव जितने के लिए विकास नहीं विनाश का एजेंडा भी काफी है। अगर उसको जातीय समीकरण से साधा जाय। अभी वर्तमान में राजद ने जातिवाद से भी आगे निकलकर धार्मिक भावनाओं को आहत करके वोट लेने के लिए रामचरितमानस जैसे ग्रंथ के बारे में अपने राजनीतीक फायदे के लिए आपत्तिजनक बयान दिये। सवर्णों को निचा दिखाने का एजेंडा चलाया।

जनता दल यूनाइटेड (JDU) जिसके मुखिया नितीश कुमार हैं, उन्होंने समाजवाद के नाम पर पूरे बिहार को ठगा। कभी RCP टैक्स से सत्ता चलानेवाले आज RCP को देखना पसंद नहीं करते हैं। अपने राजनीतीक स्वार्थ के लिए पाला बदलने में महारत हासिलकर इन्होंने देश को एक नए सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला दिया है। समाजवाद के नाम पर कुर्मी जाति को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से इन्होंने इतना बढ़ाया जितना कि लालू ने भी अपने तथाकथित जंगलराज में यादव को नहीं बढ़ाया। प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से अब इनके दल के अंदर चल रहे विरोधाभास उजागर होने लगे हैं और उपेंद्र कुशवाहा इनसे अपना हिस्सा उसी प्रकार मांग रहे हैं जिस प्रकार नितीश ने पटना के गाँधी मैदान में 1994 में कुर्मी चेतना रैली करके लालू से अपना हिस्सा माँगा था। RCP के समर्थक अब उपजातीय जनगणना की मांग उठा रहे हैं ताकि नितीश को उनकी हैसियत बताई जा सके।

जहाँ तक बात स्वर्गीय रामबिलास पासवान के दल का है तो यह घोर प्रतिक्रियावादी पार्टी है। सत्ता के लालच में फ़िलहाल परिवार के दो सदस्यों के बीच विभक्त है। आप सभी को स्मरण होगा कि स्व.पासवान एक मुस्लिम को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। अपने हेलिकॉप्टर में वैश्विक आतंकी ओसामा बिन लादेन की तरह दिखने वाले एक मुस्लिम व्यक्ति को लेकर चुनाव प्रचार किया। कालांतर में नीतीश ने मुख्यमंत्री बनते हीं स्व. रामबिलास के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिये एक नया वर्ग खड़ा कर दिया जिसे बिहार के दस्तावेज में “महादलित” की संज्ञा दी गई है।

इसी प्रकार नीतीश ने एनडीए के मुख्यमंत्री रहते हुए मुस्लिम वोटबैंक में भी सेंध लगाने का प्रयास किया। आतंकी इशरत जहाँ को बिहार की बेटी कहा। बीजेपी के सहयोग से जमकर सांप्रदायिक और जातिय तुष्टिकरण किया। कहना न होगा कि आज का बिहार क्यों और कैसे पीएफआई (PFI) का वैश्विक राजधानी बन गया है। जबकि हज़ारों बिहारी लोग राज्य से पलायन करने को मज़बूर हैं।

वामदलों का एजेंडा अभी भी पिछड़ेपन को बेचना ही है। ये वामदल पिछड़ों के जातिय नेताओं से बड़ा नेता बनने में पिछड़ी राजनितिक पार्टियों की पिछलग्गू बन गये और अब अपनी प्रासंगिकता भी खो चुके हैं। हालाँकि राजद ने इनके साथ गठबंधन करके इस विचारधारा के लोगों के वोटों को भी साधने का प्रयास किया है। पिछले चुनाव में वामपंथियों को इसका लाभ भी मिला है। यह गठबंधन भी अंततः बिहार के पिछड़ेपन के साथ सांप्रदायिक-जातिय भाव को ही जीवित रखकर राजनीति करने का प्रयास है। यह भी बिहार की आने वाली पीढ़ी के लिये अशुभ है।

जहाँ तक बात कुछ तथाकथित नेताओं की है तो उनका मूलचरित्र भी पंथनिरपेक्षता से मार्गदर्शित है। वे कभी सत्ता दिलाने के नाम पर लोकतंत्र की दलाली करते आये हैं। तो दूसरी ओर मीडिया मैनेज करके अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के जुगाड़ में लगे हैं। वे चाहे कितना भी शोभायात्रा कर लें, बिहार में इनकी दाल गलने वाली नहीं है।

अब प्रश्न उठता है कि क्या सनातन धर्म, परंपरा और जीवन मूल्यों के लिये बिहार में कोई मंच नहीं है ? हम अपने आने वाली पीढ़ी के लिये कैसा बिहार छोड़कर जाना चाहते हैं आदि-आदि ?

इन्हीं प्रश्नों पर चिंता और चिंतन से बिहार में एक मंच की आवश्यकता महसूस की गई। इस मंच का नाम समर्थ बिहार है। मंच का मानना है कि अगर बिहार की सभी समस्याओं के जड़ में “ कुत्सित राजनीति” है तो इसका समाधान भी “सात्त्विक राजनीति” हीं है। मंच ने संकल्प लिया है कि वह बिहार के सभी दलों के मूल चरित्र को जनता में उजागर करेगा और बिहार में एक राजनीतीक विकल्प देने का प्रयास करेगा। संजय कुमार व् एस. के. सिंह (समर्थ बिहार)

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