बिहार सदियों से राजनीति का प्रयोगशाला रहा है। मौर्यकालीन समय से लेकर अभी तक भारत की राजनीति बिहार में स्थापित सामाजिक और राजनीतिक मानकों के अनुरूप कमोवेश निर्धारित होती रही है। आज जब २०२४ का लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा है तब निर्णायक भूमिका के रूप में बिहार को देखा जा रहा है।

इस बार बात केवल बिहार से ४० लोकसभा सीटों को जीतने का नहीं है, इस बार अगर भाजपा बिहार में कम सीटों पर सिमट गयी तो आगे आनेवाले लम्बे समय तक भाजपा की राजनीति हासिये पर चली जाएगी।

वहीं दूसरी ओर नितीश के नेतृत्व में अंतर्विरोध झेल रहे जदयू, राजद, कांग्रेस, वामपंथी दलों के गठजोड़ को अगर २०२४ लोकसभा में बढ़त मिलती है तो इससे भाजपा की राजनीति को मात देकर उन्हें अपने अंतर्विरोध को सुलझाने में मदद मिलेगी और इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें भाजपा के वर्चश्व को रोकने में आसानी होगी।

भारत में तुष्टिकरण की राजनीति की जब चर्चा होती है तो कुछ राज्यों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है उनमें से बिहार एक है। बिहार में तुष्टिकरण की राजनीति की शुरुवात वास्तव में तभी हो गई थी जब १९६७ के आस पास बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। जिसमें राजनितिक दलों को स्पष्ट बहुमत सरकार बनाने के लिए नहीं मिल रहे थे।

पहले कांग्रेस ने मुस्लिम और दलित समुदाय का राजनीतिक तुष्टिकरण करके उसका राजनीतिक लाभ उठाया। उसके बाद वामपंथी दलों ने अपने को बिहार की राजनीति में प्रशंगिक बनाये रखने के लिए पिछड़ी जातियों को अपने राजनितिक एजेंडा के द्वारा तुष्ट करने के कोशिश किया। सत्तर के दशक की राजनीति की बागडोर इन वामदलों के हाथों से निकलकर उग्रवादी माओवादी संगठनों के हाथों में पहुंच गयी और परिणाम स्वरुप बिहार के कुछ इलाकों में हिंसा और अराजकता देखने को मिला। इसमें जाने अनजाने दूसरे देशों का भी हाथ रहा।

ध्यान देने की बात यह है कि सत्तर के दशक में यहाँ के प्रमुख वाम दलों के नेताओं के बच्चे रूस में पढ़ा करते थे और वामपंथी दल के नेता यहाँ पर समानता लाने के लिए भाषण दिया करते थे।

इसके बाद तथाकथित सुशासन का दौर २००५ में शुरू हुआ, जो राजनीतिक तुष्टिकरण को नयी उंचाई पर ले गया। इसके बाद बिहार के सभी राजनीतिक दलों ने तुष्टिकरण को अपने राजनीतिक एजेंडा में सर्वोपरि रखा। राजनीतिक तुष्टिकरण को सोशल इंजीनियरिंग में घोल दिया गया और अब इसमें से तुष्टिकरण को निकलना कठिन ही नहीं असंभव होता चला गया।

MY (मुस्लिम और यादव ) के बाद लव कुश (कुर्मी और कुशवाहा) इस घोल के अवयव बन गए। जब तक ये अवयव नहीं डाले जायेंगे राजनितिक घोल असरदार होगा ही नहीं। OBC (Other Backwards Caste ) से केवल बात नहीं बनी. तब सुशानबाबू ने EBC (Extremely Backwards Caste ) को नई पहचान दी। अब जाकर राजनीतिक तुष्टिकरण अपने सबाब में आया।

सुशाशन बाबू ने अधिक से अधिक सरकारी जमीन को कब्रगाह में तब्दील कर दिया और उसकी बाउंड्री करा कर उसे चिन्हित कर दिया। ताकि मरने के बाद लोगों को कब्र तक पहुंचने में इंतज़ार नहीं करना पड़े। सभी दलों ने इसका स्वागत किया। क्योंकि यह तो धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा था। UPA के शासनकाल में वक्फ बोर्ड को जो असीमित अधिकार दिए गए थे, वे गाहे बगाहे अपनी मनमानी करते रहे और सुशासन और धर्मनिरपेक्ष सरकार वाहवाही करती रही।

सुशासन के समय ही PFI जैसे आतंकी संगठन पूरे राज्य में अपने पांव फैलाते रहे और सुशासन इनको इफ्तार पार्टी देता रहा। इसी सुशासन में सीमांचल की स्थिति बद से बदत्तर और विस्फोटक हो गयी। लेकिन भाजपा के मंत्री जो सुशासन का हिस्सा थे, कान में तेल डालकर सोये रहे। क्योंकि उनको सत्ता की मलाई खाने से मतलब है राष्ट्रीयता और हिंदुत्व तो उनके लिए एक सब्सिडियरी एजेंडा है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बिहार में भाजपा के नेता इन सभी में भागीदार रहे।

हद तो तब हो गई जब लोजपा के संस्थापक स्वर्गीय रामविलास पासवान ने ओसामा बिन लादेन के चेहरे से मिलते जुलते एक मुस्लिम कैंडिडेट को बिहार का अघोषित मुख्यमंत्री के रूप में लेकर हेलीकाप्टर से उड़ने लगे ताकि मुस्लिम समुदाय उनको मुसलमानों का सच्चा प्रतिनिधि समझे। प्रतीकात्मक रूप से राजनितिक तुष्टिकरण का यह एक अनोखा उदाहरण है। आज उन्हीं के राजनीतिक विरासत संभल रहे चिराग पासवान को लोग एक प्रगतिशील नेता के रूप में देख रहे हैं और कुछ बुद्धिजीवी तो उनके साथ फोटो खिचवाने में अपना भाग्य समझते हैं !

देश में पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की अगुवाई की सरकार ने अच्छे काम किये हैं। इसमें कश्मीर से धारा ३७० का उन्मूलन, राम मंदिर के निर्माण के लिए एक अहम् और प्रशंशनीय कदम है। लेकिन भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा बिहार में निराशाजनक एवं हतोत्साहित करनेवाला क्यों है ? क्या भाजपा बिहार के लिए दोहरे मानदंड का प्रयोग कर रही है ? प्रेक्षकों का मानना है जिस प्रकार भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने नेतृत्व को उभारा उस प्रकार वह बिहार में नहीं कर पाई। आज उत्तर प्रदेश देश का एक सुशासित प्रदेश है और वहां पर अच्छे नेतृत्व के कारण लगातार इन्वेस्टमेंट हो रहे हैं और रोजगार सृजित हो रहे हैं। इसके उलट बिहार में राजनितिक अराजकता के कारण कानून व्यवस्था की स्थिति खराब हैं और इन्वेस्टमेंट नहीं होने के कारण लोगों का पलायन पूर्ववत जारी है।

क्या बिहार की जनता केवल लोकसभा के चुनाव के परिणाम से ही अपने समस्याओं का समाधान ढूंढ़ पायेगी ? क्या भाजपा के राष्ट्रीय कार्यक्रमों से ही बिहार की प्रगति की दिशा तय होगी ? क्या बिहार की जनता सुशासन बाबू पर ही विकास के लिए अपना दांव लगाती रहेगी ? क्या भाजपा और जदयू ने बिहार की जनता को गुड गवर्नेंस दिया है ? प्रेक्षकों की माने तो नितीश का पहला पांच वर्ष केवल विकासोन्मुखी था। उसके बाद तो कुर्सी पर बने रहने का गठजोड़ चलता रहा। क्या सुशासन बाबू ने अपने को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने के लिए बिहार की जनता के मैंडेट को धोखा नहीं दिए है ?

सबसे महत्वपूर्ब बात यह है कि NDA या महागठबंधन के सभी राजनितिक दल जातीय जोड़ तोड़ को ही राजनीति का पर्याय मान लिए हैं। बिहार का प्रशासन अघोषित रूप से भ्रस्ट बन गया है। पिछले दस बारह वर्षो में ऑफिसर्स आम आदमी की कौन कहे मंत्री तक की नहीं सुनते हैं। राजनितिक दलों का चाल, चरित्र और चेहरा इस कदर उजागर हो गया कि आम आदमी उनसे अपेक्षा करना ही छोड़ दिया। राजनीतिज्ञ अपने को कुर्सी पर बने रहने के लिए आवश्यकतानुसार अपने चरित्र को बदलते रहे और भ्रष्टाचार, जंगलराज के मानक और परिभाषा को आवश्यकता के अनुरूप भूलते और याद करते रहे।

इससे भी महत्वपूर्ण है बिहार के बुद्धिजीवी वर्ग के चाल, चरित्र और चेहरा को समझना। ये तथाकथित बुद्धिजीवी बिहार से बाहर पलायन करने के लिए आवश्यकतानुसार सिद्धांत प्रतिपदित करते रहे कि “अब बिहार का कुछ नहीं हो सकता है” । कुछ तो ऐसे भी हैं जो बिहार से बाहर जाकर अपने बिहारी होने की पहचान को भी छिपाते हैं। इनलोगों ने बिहार की बदहाली को नियति मान लिया है लेकिन ये कहते नहीं थकते कि बिहार गणतंत्र की जननी है, बिहार से बौद्ध और जैन धर्म का उद्भव हुआ, जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एमर्जेन्सी के विरोध में बिहार से ही क्रांति की शुरुवात हुई।

आज आवश्यकता है कि बिहार का बुद्धिजीवी वर्ग चाहे वह बिहार में है या बिहार के बाहर है, अपने निजी स्वार्थ और सहूलियत से ऊपर उठकर बिहार में एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए आगे आएं। यह आगे आनेवाले कई पीढ़ियों के लिए एक सार्थक कदम होगा। समर्थ बिहार इसके लिए अपनी क्षमता के अनुरूप प्रयास कर रहा है।

अंग्रेजी में एक कहावत है Change is permanent, all things are temporary । बिहार की राजनीति में अब तुष्टिकरण से जनता ऊब चुकी है। समर्थ बिहार की टीम ने बिहार के कुछ जिलों का दौरा किया और लोगों से इस विषय पर उनकी राय जाननी चाही। लोगों ने बताया कि उनके पास ऐसे राजनितिक दल का विकल्प नहीं है जिसको वे चुन सके। लालू नहीं आवे इसलिए नितीश को वोट दाल देते हैं। लेकिन अब तो लल्लू और नितीश मिल गए हैं और भाजपा भी अपनी सुविधानसार अपना ट्रेंड बदलती रही है, वे किसे वोट दें ? यह एक स्पष्ट संकेत है बिहार तुष्टिकरणमुक्त एक नए राजनीतिक विकल्प के लिए। समर्थ बिहार राज्य में तुष्टिकरणमुक्त एक नए राजनितिक विकल्प हेतु प्रयास कर रहा है। – संजय कुमार एवं एस के सिंह, समर्थ बिहार

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