(नए समय पर देश में खासकर बिहार में जातिय जनगणना को लेकर लोहिया-जे.पी. की समाजवादी और सम्पूर्ण क्रांति विचारधारा वाली क्षेत्रीय सत्तासीन व् विपक्षी ‘राजनितिक दल’ अपने-अपने जातिय विरादरी सहित अन्य एस.सी. तथा एस.टी. जातिय समूहों को लुभाना चाहती है। जातिय जनगणना के विरोध में भी सवर्ण जातिय समूह का कुछ हिस्सा खड़ा है, किन्तु बिहार सरकार राज्य में जातिय जनगणना कराना चाहती है। ताकि उसे इसका लाभ मिल सके। वैसे जातिय जनगणना हिंदुस्तान में सबसे पहले अकबर के शासन में और बाद में अंग्रेजों के राज में हो चूका है। अरुण सिंह (Journalist, Author and Photographer) ब्रिटिश काल में हुई पहली जातिय जनगणना के gazetteer को इस नए समय के सामने रख रहे हैं।)
ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1815 से अपने आधिपत्य के इलाके की विस्तृत जानकारी के लिए भौगोलिक और अन्य विवरणिका (gazetteer) की एक श्रृंखला का प्रकाशन शुरू किया था। गज़ेटियर में संबंधित इलाके का भूगोल, इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा, पेशा, वेतन, मजदूरी, जनस्वास्थ्य, कृषि, सिचाई, प्राकृतिक आपदा, यातायात के साधन, भूराजस्व, स्थानीय प्रशासन इत्यादि की महत्वपूर्ण जानकारी होती है। इसके पहले अकबर के वक्त में अबुल फज़ल ने आईने अकबरी में इस तरह का काम किया था। फिर अंगरेजों ने इसका बकायदा प्रकाशन का काम शुरू किया।
इसी क्रम में 1907 में एक ब्रिटिश आईसीएस अधिकारी ओ‘मैली को पटना के साथ साथ कई और दूसरे जिलों के गज़ेटियर तैयार करने का काम सौंपा गया। पटना जिला के गज़ेटियर तैयार करने के क्रम में उन्होंने यहां रहने वाली जातियों की जनसंख्या के साथ साथ उनके बारे में रोचक जानकारी दी है।
ओ‘ मैली ने लिखा है, ‘मुसलमानों में शेख (56,302 ) के बाद जुलाहों( 28,602) की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। हिन्दुओं में सबसे अधिक आबादी वाले अहीर या ग्वाला ( 232,908 ), कुर्मी ( 167,522), बाभन (108,263), दुसाध (100,200 ), कहार ( 84,531), कोइरी ( 72,491), राजपूत (63,724),चमार (60,472),और तेली(42,277) हैं। इसके अतिरिक्त आठ ऐसी और जातियां हैं जिनकी आबादी 25,000 से ज्यादा है। इनमें बढई, ब्राह्मण, धानुक, हज्जाम, कन्दुस, मुसहर, पासी और कायस्थ हैं।
उसने लिखा है, पटना जिला में ग्वाले या अहीर सबसे बड़ी जनसंख्या वाले हैं। ये मितव्ययी होते हैं। ये अनाज, भूसी बेचकर अपने मवेशियों के लिए चारा काटकर और अपरिष्कृत भोजन कर अपना जीवन यापन कर लेते हैं। जबकि घर की महिलाएं दूध, मक्खन और दही बेचती हैं। अहीर आमतौर पर किसान और पशुपालक होते हैं। लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे भी अहीर हैं जो बेहद गरीब हैं और मजदूरी कर गुजर बसर करते हैं। हां, इस जाति में कुछ समृद्ध जमींदार भी हैं।
ओ‘ मैली ने ग्वालों को जिले में सबसे ज्यादा झगड़ालू बताया है और लिखा है कि उन्हें लाठी से कुछ ज्यादा ही लगाव है। ओ‘मैली ने ग्वालों के एक रोचक त्योहार का उल्लेख किया हैं। उसने लिखा है, ‘ कार्तिक के सोलहवें दिन, दिवाली के एक दिन बाद वे सोहराई नाम का एक विलक्षण पर्व मनाते हैं। दिवाली की रात दूध में चावल पका कर वे खीर नाम का खाद्य पदार्थ तैयार करते हैं। इस खीर को वे अपने इष्टदेव को समर्पित करते हैं। सभी मवेशियों को भूखा रखा जाता है। अगली सुबह उनके सींगों को लाल रंग से रंग दिया जाता है और उनके शरीरों को भी लाल रंग से पोत दिया जाता है। इन मवेशियों को एक मैदान में छोड़ दिया जाता है जहां एक सुअर के पैरों को बांध कर छोड़ दिया गया होता है। मवेशी उस सुअर को रौंद कर मार डालते हैं।
1907 में जब ओ‘ मैली गजेटियर के लिए विभिन्न जातियों का सर्वेक्षण कर रहा था तो उस वक्त पटना जिला में यादवों, कुर्मियों, बाभनों के बाद दुसाध, कहार, कोइरी, राजपूत, चमार (अब जिन्हें रविदास कहा जाता है) और तेली इत्यादि महत्वपूर्ण जातियां थीं। इसके अतिरिक्त 25000 से ज्यादा आबादी वाली अन्य आठ जातियों में बढ़ई, ब्राह्मण, धानुक, हज्जाम (नाई), कंदुस, मुशहर, पासी और कायस्थ थे।
पटना जिले में तेलियों की संख्या 42,377 थी। तेल का उत्पादन और उनको बेचने के पुश्तैनी कारोबार पर उनका एकाधिकार था। इसके अतिरिक्त इनकी एक बड़ी आबादी अनाज और पैसों के लेनदेन के कारोबार में भी लगी हुई थी। तत्कालीन समाज में व्याप्त अंधविश्वास से ये अछूते नहीं थे। तेलियों का भूत, प्रेत और बुरी आत्माओं पर दृढ़ विश्वास था।
ओ‘ मैली ने लिखा है, ‘तेलियों का यह दृढ़ विश्वास है कि मृत्यु के बाद चाहे वह स्वाभाविक मौत हो या अस्वाभाविक, प्रत्येक तेली बहुत ही शक्तिशाली दुष्ट आत्मा बन जाती है। उसे ‘तेलिया मसान‘ कहा जाता है। प्रचलित मान्यता के मुताबिक बहुत शक्तिशाली ओझा ही ‘तेलिया मसान‘ को नियंत्रित कर सकता है। जादूगर अकसर मृत तेली की खोपड़ी को अपने पास रखते हैं। इस खोपड़ी के मार्फ़त वे बुरी और दुष्ट आत्माओं (तेलिया मसान) का आह्वान करते हैं।‘
अतीत में पटना जिला में तेली बहुत ही शक्तिशाली रहे हैं। इतिहासकारों के मुताबिक बिहार शरीफ के निकट तेल्हारा उनकी शक्ति का केंद्र था। तेल्हारा विश्वविद्यालय नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से भी पुराना है। यहां बौद्ध विहार भी था। बौद्ध भिक्षु ह्यूएन त्सांग अपनी यात्रा के क्रम में यहां आया था। उसने इसे तेलधका नाम से याद किया है।
नालंदा महाविहार के विशाल प्रवेश द्वार का निर्माण तेली वंश के प्रमुख बालादित्य ने करवाया था। तेली जाति के ही एक व्यक्ति ने भगवान् बुद्ध की विशाल प्रतिमा की स्थापना की थी। अब यह स्थान तेलिया भण्डार कहलाता है। निकट ही तेतरवन में भी इन्होने बुद्ध की विशाल प्रतिमा की स्थापना की।
ओ‘ मैली ने आगे लिखा है, ‘करीब करीब जिले के सभी प्रकार के कारोबार इन तेलियों के हाथों में है। इन पर उनका पूरा नियंत्रण है। यहां एक लोकप्रिय कहावत प्रचलित है। ‘तुर्क, तेली, ताड़ इन तीनों से बिहार।‘ बिहार मुसलमानों, तेलियों और ताड़ से बना है।‘ कुछ वर्ष पहले तक यह कहावत प्रचलित थी। इस बीच तेलियों की आबादी बढ़ी और मुसलमानो की भी। लेकिन सड़क के किनारे खड़े ताड़ के पेड़ों की संख्या अब काफी कम हो गई है। – ArunSingh (स्रोत: पटना जिला गजेटियर 1907)