यह बिहारियों का दुर्भाग्य है कि वर्ष 1990 से लेकर आज 32वर्षों बाद भी उन्हें बिहार छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा है। राज्य से बाहर इनकी स्थिति अपमानजनक है। फिर भी वे इस भयावह स्थिति के लिये ज़िम्मेवार लोगों के साथ हीं खड़े हैं। जबकि राजद सुप्रीमो परिवार चोरी के साथ सीना जोरी भी कर रहा है और बिहार का सुशासन बंधक है।

तमिलनाडु में बिहारी मज़दूरों के ख़िलाफ़ जघन्य अपराध , हिन्दी भाषी होने के कारण बिहारियों को मौत के घाट उतारने की घटना एक अफवाह के बावजूद बिहारी समाज और राजनीति के चारित्रिक पतन का ताज़ा उदाहरण है। तमिलनाडु की घटना को तमिलनाडु और बिहार सरकार ने अफवाह घोषित किया है। लेकिन बिहारी मजदूरों, बिहार प्रवासियों सहित मजदूरों के साथ ऐसी घटनाएं कश्मीर, पंजाब, दक्षिण भारत और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में क्या होता रहा है, यह शिव सेना, मनसे, कश्मीर और ऐसे ही अतिवादियों से पूछ लें।

अभी बिहार की एक प्रमुख कथित राजनीतिक पार्टी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव परिवार जांच एजेंसियों के कार्यवाई पर ‘चोरी के साथ सीना जोरी’ कर रहा है। बिहारी जनता और युवाओं के भविष्य को नष्ट करने वाला परिवार बिहार की शिक्षा व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था को भी नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। लेकिन इस प्रकार की बिहारियों के विरुद्ध देश भर में हो रहे अन्यान्य होती रही घटनाओं के लिये केवल राजनीतिज्ञ हीं उत्तरदायी नहीं है। अपितु एक समाज होने के नाते बिहारी सर्वप्रथम दोषी हैं। कहते हैं न कि हम जैसा होते हैं उसी प्रकार की शासन व्यवस्था और प्रतिनिधि हमें मिलते हैं। अतः 32 वर्ष के काल में बिहार के नेताओं ने इन संस्थानों के साथ गठजोड़ कर बिहारियों के लिये ऐसी अपमानजनक और दयनीय स्थिति पैदा की है।

क्या यह सत्य नहीं है कि सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध तक बिहारियों का प्रति व्यक्ति आय दक्षिण के राज्यों से अधिक था। पुनः यह वही काल खंड है जब बिहार देश का सबसे सुशासित प्रदेश था। तो फिर ऐसा क्या हो गया कि अस्सी के दशक के बाद से “बिहारी” देश में गाली का प्रयाय बन गया।

इसी का उत्तर तलाशने पर देश के तमिलनाडु में बिहारियों पर जानलेवा हमले, मौत की अफवाहों व अन्य दूसरे राज्यों में लगातार हो रहे दुर्व्यवहार के कारणों का पता चलेगा।

क्या यह विडंबना नहीं है कि एक ओर बिहार का उपमुख्यमंत्री वहाँ के सीएम के साथ केक काट रहा था तो दूसरी और आरजेडी के वोट बैंक माने जाने वाले लोगों को तमिलनाडु में मुल्ली-गाजर जैसे मारा काटा जा रहा था, अफवाह ही सही। किंतु बिहार के प्रवासी लोगों के खिलाफ भेदभाव को संदर्भित करती है।

1990 के दशक में बिहार में शेष भारत की तुलना में धीमी आर्थिक वृद्धि हुई थी, जिसके कारण बिहारियों को अवसरों की तलाश में भारत के अन्य हिस्सों में पलायन करना पड़ा। बिहारी प्रवासी श्रमिकों को अपराधियों के रूप में उनकी रूढ़िवादिता के कारण उन राज्यों के स्थानीय लोगों द्वारा घृणा की बढ़ती डिग्री के अधीन किया गया है। इसके अलावा, कई राष्ट्रीय परीक्षाओं और सेवाओं में क्षेत्रीय भाषाओं को छोड़कर केंद्र सरकार की एजेंसियों के कारण गैर-हिंदी राज्यों में बढ़ती हिंदी विरोधी भावना के कारण बिहारियों को शिकार बनाया गया है।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा था कि बिहार से लोगों के पलायन के कारण दिल्ली के बुनियादी ढांचे पर अत्यधिक बोझ पड़ा है। उन्होंने कहा, “ये लोग बिहार से दिल्ली आते हैं, लेकिन दिल्ली के बुनियादी ढांचे पर बोझ डालकर कभी वापस नहीं जाते हैं।” इसी तरह की बातें केजरीवाल ने भी कहा। तो बिहार की ‘राजनीतिक पार्टियां’ दिल्ली में बिहारी उत्पीड़न के नाम पर बिहारी प्रवासियों के ध्रुवीकरण की कोशिश करती हैं।

भारत के औसत 1,470 डॉलर के मुकाबले बिहार की प्रति व्यक्ति आय 536 डॉलर प्रति वर्ष है। इस आय असमानता के कारण प्रवासी बिहारी श्रमिक बेहतर भुगतान वाले स्थानों पर चले गए और कम दरों पर काम करने को मजबूर होते हैं।

20 अक्टूबर 2008 को मुंबई में राज ठाकरे की धुर दक्षिणपंथी मनसे पार्टी के समर्थकों द्वारा रेलवे प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे बिहार के छात्रों सहित उत्तर भारतीय छात्रों पर हमला किया गया था। हमलों के दौरान बिहार के एक छात्र की मौत हो गई थी। मनसे प्रमुख राज ठाकरे की गिरफ्तारी के बाद कल्याण के पास एक गांव में भड़की हिंसा में चार लोगों की मौत हो गई और एक अन्य गंभीर रूप से घायल हो गया।

बिहार के राजनीतिक गलियारे में लोग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जन्म दिन की बधाई देने में व्यस्त हैं और तमिलनाडु में बिहारी मज़दूरों की हत्या को पटना की पुलिस इसे बिहार के मज़दूरों के आपसी झगड़ा बता रही है।

बिहार का विकास नहीं हो, यहाँ का इंफ़्रास्ट्रक्चर बदहाल बना रहे, यहाँ के छात्र-छात्राएँ राज्य से बाहर पढ़ने के लिये बाध्य किया जाये, रोज़गार का अवसर नहीं होने के कारण बिहारियों के पास विकल्प नहीं है। अपुष्ट श्रोतों का मानना है कि बिहार एक सोची-समझी राजनीति का हिस्सा है। आलोचकों का कहना है कि अगर बिहार का भी विकास हो गया तो देश में “श्रमिकों” की आपूर्ति कौन करेगा? बिहार की दयनीय स्थिति पर विचार करने पर यह सच प्रतीत होता है।

यह बिहारियों का दुर्भाग्य है कि वर्ष 1990 से लेकर आज 32वर्षों बाद भी उन्हें बिहार छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा है। राज्य से बाहर इनकी स्थिति अपमानजनक है। फिर भी वे इस भयावह स्थिति के लिये ज़िम्मेवार लोगों के साथ हीं खड़े हैं। जबकि राजद सुप्रीमो परिवार चोरी के साथ सीना जोरी भी कर रहा है और बिहार का सुशासन बंधक है।

वे जात-पात से ऊपर उठने को तैयार नहीं हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि इनकी आने वाली पीढ़ियाँ इससे भी भयावह स्थिति का सामना करेगी।

उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु की घटना तो अभी अफवाह हो सकती है। किंतु बिहारियों के ख़िलाफ़ ऐसी वारदात अन्य राज्यों में भी होते रहते हैं। समर्थ बिहार इस पर एक श्वेतपत्र जारी करने का प्रयास करेगा।

– संजय कुमार व एस के सिंह (समर्थ बिहार)

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