Bihar-Files

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सत्तर के दशक के बाद के “बिहार” को अगर सम्पूर्णता में देखा जाये, तो यहाँ पर अपने आप में विश्व का सबसे बड़ा धारावाहिक/फ़िल्म बन सकता है। अपहरण फ़िल्म तो नब्बे के दशक के बाद तत्कालीन व्यवस्था द्वारा संस्थागत सोच पर बनी फ़िल्म है। शायद दुनिया में यह पहला उदाहरण होगा कि राज्य ने अपहरण को उद्योग का दर्जा दिया और इसे संचालित करने के लिये तंत्र भी बना लिये थे।

बिहार फाइल्स के जरिए सिनेमा के माध्यम से बिहार के मेहनतकशों और बुद्धिजीवियों का बिहार से पलायन का कारण और उस परिस्थिति को जानने में मदद मिलेगी। यह बिहार से बाहर भी लोगो को ज्ञात होने से बिहार जैसी पलायन की स्थित नहीं हो इसमें मदद होगी।

ज्ञात हो कि अविभाजित बिहार में पहले राजधानी पटना के अतिरिक्त भी अन्य जिलों में औद्योगिक इलाके हुआ करते थे। गया, बक्सर, आरा, मुजफ्फर पुर, हाजीपुर औद्योगिक क्षेत्र आदि। नब्बे के दशक से शुरू हुई राजनीति और बिहार की कथित राजनीतिक पार्टियों ने इन औद्योगिक क्षेत्रों को लूटा और बर्बाद कर दिया। बिहार के विकास में लगने वाली श्रमशक्ति को बिहार के बाहर पलायन कराने की व्यवस्था कर दी।  

बिहार से श्रमशक्ति एवं बुद्धिजीवियो के पलायन को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है। पहला, वे लोग जो दूसरे राज्य के और लोगों की तरह बेहतर अवसर की तलाश में बाहर गये। इसमें ज्यादा तकनीकी रूप से प्रशिक्षित इंजीनियर, डॉक्टर इत्यादि शामिल हैं। जिनके स्किल की मांग है और वे दुनिया में अपने को प्रमाणित कर सकते हैं। वहां की इकॉनमी में उनके योगदान के कारण उनको उचित सम्मान और जगह मिली। अमेरिका और अन्य देशों में गये लोगों को इस श्रेणि में रखा जा सकता है।

दूसरा, वे लोग जिनको अपने भरण-पोषण के लिए दिल्ली व दिल्ली जैसे अन्य महानगरों में जाना पड़ा। रिक्शा चलाने से लेकर मज़दूरी करके ये लोग अपना भरण-पोषण करते हैं। परिवार से ये लोग मूलरूप से जुड़े रहते हैं और बिहार में वर्ष में एक या दो बार आते हैं। ये लोग बिहार की इकॉनमी को मनी ऑर्डर और आजकल डिजिटल मनी ट्रान्सफर द्वारा सपोर्ट करते हैं। अगर बिहार में अवसर मिले तो यहाँ रहकर काम करना पसंद करेंगे और यहां की मिट्टी से जुड़े रहना चाहेंगे।

तीसरा, वे लोग जो 1990 के दशक के बाद तथा कथित जंगलराज के समय अपहरण के डर से अपने बच्चों को बिहार के बाहर पढ़ाते थे। तथा, अपने को सुरक्षित करने के लिए 20 लाख का मकान 8 लाख में बेचकर बिहार से बाहर चले गये। उस समय का बिहार ने आपने ब्रांड को इतना क्षत-विक्षत किया कि बिहार के बाहर बिहार ब्रांड की क्षति इतनी हुई कि उसकी क्षतिपूर्ति आज-तक नहीं हो पाई है। और, आज भी जब राजनीतिक गठजोड़ बदलता है तो लोग पुराने दिनों का उदाहरण देकर जंगलराज आने की संभावना से इंकार नहीं करते हैं।

चौथी श्रेणी में उनलोगों को रखा जा सकता है जो कि य़ह मान लिये हैं कि बिहार का कुछ नहीं हो सकता है।  यहां पर परिवर्तन की बात करना बेमानी हैं। अतः यहां से बाहर जाकर रहना उपायुक्त है। इसके लिए सरकार की तरफ से पर्याप्त अवसर मुहैया नहीं कराने का कभी रोना-रोते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि यहीं की परिस्थिति को सुधारने के लिए कुछ कारगर उपाय करना उनकी भी जिम्मेदारी है। इन्होंने राजनीति को निम्न श्रेणि का पेशा मान लिया। यही कारण है कि अधिकांश, बिहार की राजनीति में दिनों दिन अच्छे लोगों का प्रवेश कम होता चला गया।

बिहार से बिहारियों के पलायन के पीछे राजनीतिक कारण की तलाश की जाय तो मूल बात सामने आती है कि 1980 के दशक के बाद से राजनीतिक दलों ने सत्ता पाने या अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति के साथ जातीय पिछड़ापन को बेचना शुरू किया। जाने-अनजाने इसका प्रभाव इतना गहरा होता चला ग़या कि बुद्धिजीवियों का भी कुराजनीतिकरण होता चला ग़या। इसमें तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी समाजिक न्याय को ढाल बनाकर राबड़ी देवी जैसी महिला को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना उचित कहने लगे।

पिछड़ेपन और अति पिछड़ेपन को इस प्रकार ढाल बनाया ग़या कि जातीय जनगणना भी कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा उचित ठहराया जाने लगा। और तुष्टिकरण की, जो दुर्भाग्य से जातिवाद की खेती इस प्रकार हुई कि अगली पीढ़ी के लोगों को उसका फ़सल के आलावा और कोई फ़सल बोना बिहार की राजनीति में घाटे का सौदा साबित हुआ। बुद्धिजीवी और चुनावी दलों ने विकास और समृद्धि का मुद्दा केवल अपने घोषणा पत्र तक ही रखा। वास्तव में टिकट उन्हीं लोगो को दिया ग़या जो जाति के समीकरण में सही बैठते हो।

अब बिहार में पहली बार जाति के अंदर उपजाति की भी गणना होने लगी। राजनीतिकरण के संदर्भ में, इनका ताजा उदाहरण आरसीपी सिंह का जदयू से अलग होकर कुर्मी जाती में एक खास उपजाति को साथ ले चलने की कोशिश की जा रही है।

दुर्भाग्य य़ह है कि वे मार्क्सवादीमाओवादी जो मुल रूप से वर्ग संघर्ष की बात करते थे। और, य़ह मानते थे कि पढ़ने-लिखने और आथिर्क उन्नति के बाद लोगों की गिनती वर्ग से होती है न कि जाति से। वर्ग बनने का आधार आर्थिक है न कि जाति, भाषा व् अन्य। वे मार्क्सवादी-माओवादी भी सत्ता की मलाई खाने के लिए जातिवादी राजनीति को बढावा देने में दूसरे दलों से आगे निकल गए। ये मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी संगठनों ने वर्ग संघर्ष को छोड़ पिछड़ी-जातिय राजनीति और वैचारिक पिछड़ेपन को राजनीति और क्रांति का रास्ता अपनाया। और अब, जाति आधारित गणना को सही बताया। इन बुद्धिजीवियों ने ज्ञान के नाम पर बिहार की राजनीति और जनता को बहुत नुकसान पहुँचाया है।

बिहार ज्ञान की धरती है, यहाँ के बुद्धिजीवियों ने दुनिया को ज्ञान का पाठ-पढ़ाया है। दुनिया भर के लोग ज्ञान प्राप्ति के लिए यहां नालंदा जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय में आते थे।

पाटलिपुत्र का विष्णुगुप्त ने निरंकुश नंदवंश, को उखाड़ फेंक गौरवशाली मगध साम्राज्य की नींव रखी तथा विष्णुगुप्त से चाणक्य बन गए।

आज जरूरत है कि बिहार के सारे बुद्धजीवि यहाँ की राजनीतिक अस्थिरता को विराम देने तथा तुष्टिकरण और पिछड़ेपन की राजनीति को समाप्त करने के लिए आगे आवें। बिहार फाइल्स बनाकर सिनेमा के माध्यम से बुद्धिजीवियों और मेहनतकशों के पलायन के कारण को जानने और परिस्थितियों का सही चित्रण करके लोगों को जागरूक करें।

बिहार ने अभी तक कई वॉलीवुड फ़िल्मों के लिये प्लाट दिया है। हाल के दिनों में अपहरण और गंगाजल व्यावसायिक तरीके से सफल भी रही। कहना न होगा कि ये फ़िल्में वर्तमान विहार के कुछ घटनाओं पर आधारित हैं।

सत्तर के दशक के बाद के “बिहार” को अगर सम्पूर्णता में देखा जाये, तो यहाँ पर अपने आप में विश्व का सबसे बड़ा धारावाहिक/फ़िल्म बन सकता है। अपहरण फ़िल्म तो नब्बे के दशक के बाद तत्कालीन व्यवस्था द्वारा संस्थागत सोच पर बनी फ़िल्म है। शायद दुनिया में यह पहला उदाहरण होगा कि राज्य ने अपहरण को उद्योग का दर्जा दिया और इसे संचालित करने के लिये तंत्र भी बना लिये थे।

वैसे भी धन उगाही के लिये दुनिया का प्रथम अपहरण 1972 में बेतिया में किया गया था। यह वहीं स्थान है जहां पर गांधी जी ने आश्रम की स्थापना की थी।

देश में बिहारी शब्द गाली कैसे बन गया, यह अपने आप में बहुत बड़ा प्लाट है। देश में ऐसे अनुभवों के बाद हम बिहारी लोग अपने प्राचीन गौरव का स्मरण करके आत्म-संतुष्टि करते हैं। समर्थ बिहार एक राजनीतिक दल बनाने की कवायद को आगे बढ़ा रहा है।(यह लेखक के निजी विचार है)

 एस. के.  सिंहसंजय कुमार (समर्थ बिहार)

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