किसी युद्ध में कौन से अस्त्र का कब उपयोग किया जाना है, इसकी समझ युद्ध के रणनीतिकारों के कौशल की विशिष्टता होती है। केजरीवाल के ख़िलाफ़ तमाम सबूत पहले से इकट्ठे हो गए थे। केजरीवाल की रणनीति किसी तरह ज़्यादा से ज़्यादा सहानुभूति प्राप्त करने के लिए इडी ED के सम्मनों की अनदेखी कर अपने गिरफ़्तारी को चुनावों के मुहाने तक के जाना था। उससे उन्हें विद्रोही और ताकतवर व्यक्तित्व में अपने को प्रस्तुतकर्ता का भी फ़ायदा था। चुनाव के मुहाने पर गिरफ़्तारी के संभावित सहानुभूति को ले कर काफ़ी लोग मान रहे थे फ़िलहाल यह न हो।

चुनावी बांड पर उच्चतम न्यायालय के रुख़ ने एक अलग परिस्थिति पैदा कर दी। चुनावी बांड की व्यवस्था श्री अरुण जेटली के मेधा का निर्माण था। काले धन का राजनीति में उपयोग कम करने की मंशा थी। जनता के सूचना के अधिकार को कुछ सीमित किया गया था। उच्चतम न्यायालय को यह नागवार गुजरा।

बिना यह बताये कि काले धन के प्रवाह को राजनीति में रोकने और जनता के सूचना के अधिकार के बीच सामंजस्य कैसे बैठाया जाय, बांड व्यवस्था को रद्द कर दिया गया। चंदा देने वाले के निजता के अधिकार के मामले की भी अनदेखी की गई। आगे क्या रास्ता निकलेगा, यह देखने वाली बात होगी।

बांड व्यवस्था के संदर्भ में निर्णय पहले ही सुरक्षित हो गया था। आया चुनाव के मुहाने पर। सत्ता रूढ़ पार्टी को ज़्यादा चंदा मिलना स्वाभाविक था। परन्तु विपक्ष INDI गठबंधन को यह महत्वपूर्ण अस्त्र था। सभी जानकारियों को तुरन्त सार्वजनिक किए जाने के दबाव और २१ मार्च की अंतिम तिथि ने केजरीवाल के गिरफ़्तारी से होने वाले सहानुभूति के फ़ायदे-नुक़सान के गणित को पीछे छोड़ उसे अपरिहार्य कर दिया। अब गिरफ़्तारी के अस्त्र का डंका बज रहा है। बांड का अस्त्र निस्तेज हो गया है।राम नारायण सिंह (२२/३/२४)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *