किस तरह से एक मासूम देशभक्ति की कवितायें लिखने वाला बालक इस्लाम के प्रभाव में आकर मातृभूमि के विभाजन की नींव डाल देता है , इक़बाल (Muhammad Iqbal) इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। आज पाकिस्तान में उन्हें मुसव्विरे पाकिस्तान, हकीमे उम्मत , मुफ़क्किरे पाकिस्तान और शायरे मशरिक कह कर याद किया जाता है। लेकिन एक दिन लाला हरदयाल ने इक़बाल को गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में एक आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में १९०५ में बुलाया था तब इक़बाल ने अपना अवसर आने पर भाषण देने की बजाय वह तराना सुनाया था जो आज तराना ए हिंदी के नाम से मशहूर है । इसी की पंक्तियाँ हैं-
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना !
हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्ताँ हमारा !!
फौरन ही यह तराना देश की गली गली में मक़बूल हो गया । १८७७ में जन्में इक़बाल १९०५ में आगे की पढ़ाई के लिये इंग्लैंड चले गये और १९०८ में एकदम बदले हुए रूप में लौटे । इक़बाल जैसे धर्म परिवर्तन कर के लौटे हों ! उनके पुराने साथी कवि उन्हें हैरानगी से सुन रहे थे । उनकी कविता पर इस्लाम का रंग चढ़ चुका था अब उन्हें इंसान के दुख दर्द की बजाय सिर्फ और सिर्फ मुसलमान का दुख दर्द दिखाई दे रहा था । इन्हीं दिनों इक़बाल ने अपनी मशहूर नज़्म शिकवा एक आयोजन में पढ़ कर सुनाई । इसमें मुसलमानों के हालात के लिये अल्लाह से बड़ी तानाकशी के साथ शिकायत की गई थी । पहले तो अल्लाह पर मुसलमानों के ढेर सारे एहसान गिनवाये गये कि जब तक मुसलमानों ने तलवार नहीं उठाई तब तक अल्लाह को दुनिया में कोई टके का नहीं पूछता था । इस्लाम के विजेताओं ने सारी दुनिया में अपनी जान की बाज़ी लगा कर अल्लाह की पूजा शुरू करवाई । इतने एहसानों के बाद भी अल्लाह ने मुसलमानों का यह हाल बना रखा है । दूसरी क़ौमों को हूर जैसी ख़ूबसूरत औरतें बख़्शी हैं और मुसलमानों को फ़कत वादा ए हूर का ख़्वाब दिखा रखा है । पूरी कविता पढ़ने लायक है मगर कुछ बंद पेश हैं ।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र,
कहीं माबूद थे पत्थर , कहीं मस्जूद शजर !
ख़ूगर ए पैकरे महसूस थी इंसाँ की नज़र ,
फिर कोई मानता अनदेखे ख़ुदा को क्यूँ कर !
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा ?
क़ुव्वते बाज़ू ए मुस्लिम ने किया काम तेरा !
बस रहे थे यहीं सलज़ूक भी तूरानी भी,
अहले चीं चीन में ईरान में ईरानी भी ,
पर तेरे नाम पे तलवार उठाई किसने ,
बात जो बिगड़ी हुई थीं वो बनाई किसने ?
चुन चुन कर खरी खोटी सुनाई गई हैं ईश्वर को ,
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है !
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है ।
इक़बाल का शिकवा सुन कर मुस्लिम जगत सन्न रह गया कि कोई मुसलमान अपने आराध्य से इतनी बद अख़लाकी से कैसे पेश आ सकता है
मगर जल्दी ही इक़बाल ने अल्लाह का पक्ष सामने रखते हुए जवाबे शिकवा लिखा जिसमें ईश्वर इक़बाल द्वारा लगाये गये सारे आक्षेपों का उत्तर देता है और मुसलमानों की बदहाली के लिये ख़ुद मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराता है और कहता है कि रसूल की सारी शिक्षा भूल कर मुसलमान फिरकों में बंट गये हैं ।
फिरकाबंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं !
क्या ज़माने में पनपने की यही बाते हैं ?
अल्लाह की तरफ से कोई कोताही नहीं है,
कोई क़ाबिल हो तो हम शान कई देते हैं !
ढूंढने वालों को दुनिया भी नई देते हैं ।
और अंत में,
की मुहम्मद से वफ़ा तूने तो हम तेरे हैं,
ये जहाँ चीज़ है क्या लौहो क़लम तेरे हैं!!
जवाबे शिकवा ने मुसलमानों को जैसे सोते से जगा दिया हो । इकबाल मुस्लिम जगत के हीरो हो गये । तराना ए हिंदी की जगह अब उन्होंने तराना ए मिल्ली लिखा जिसमें देशप्रेम को बकवास बताते हुए मुसलमानों को समझाया कि सारा संसार ही मुसलमानों का देश है और हिजरत कर के देश छोड़ना पैग़ंबर की सुन्नत है । देश के हर मुसलमान की ज़बान पर यह तराना गूँज उठा-
चीनो अरब हमारा, हिंदोस्ताँ हमारा !
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा !!
नतीजतन हिंदुस्तान का मुसलमान सारी दुनिया के मुसलमानों के साथ अपने को जोड़ कर ख़िलाफत आंदोलन में अपने ही देशवासी हिंदुओं पर काल बन कर टूट पड़ा ।
इक़बाल जब इंगलैंड में थे तभी मुस्लिम लीग में शामिल हो गये । १९३० में इलाहाबाद अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने पहली बार पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और पख्तूनिस्तान को मिला कर अंग्रेज साम्राज्य के अधीन या स्वतंत्र जैसा भी हो एक अलग मुस्लिम राज्य की मांग की जो कालांतर में चौधरी रहमत अली द्वारा पाकिस्तान की मांग में बदल दी गई । इक़बाल को अंग्रेजों ने सर की उपाधि से नवाज़ा था मगर टैगोर जैसा साहस उन मे नहीं था कि अंग्रेजों का विरोध कर सकें ।
इक़बाल की प्रारंभिक कवितायें हिमाला, नया शिवाला आदि मुझे बहुत प्रिय हैं । इक़बाल के बदले हुए रूप को देख कर आनंद नारायन मुल्ला ने लिखा था –
हिंदी होने पर नाज़ जिसे कल तक था, हिजाज़ी बन बैठा !
अपनी महफिल का रिंद पुराना आज नमाज़ी बन बैठा !
महफिल में छुपा वह क़ैसे हज़ीं, दीवाना कोई सहरा में नहीं !
पैग़ामे जुनूँ जो लाता था इक़बाल वो अब दुनिया में नहीं !
ऐ मुतरिब तेरे तरानों में अगली सी अब वह बात नहीं !
वह ताज़गी ए तख़यील नहीं बेसाख़्ती ए जज़्बात नहीं !!
संयोग से इक़बाल के पितामह एक कश्मीरी पंडित से मुसलमान हुए थे और आनंद नारायन मुल्ला कश्मीरी पंडित थे। आज का कश्मीरी पंडित भी आनंद नारायन मुल्ला की तरह ही अफ़सोसज़दा है !!
– राजकमल गोस्वामी